............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!!
..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु आदमी की जरूरतों के अनुसार उसकी सहूलियतों के लिए बनाई गई एक उम्दा सी सरंचना है....जिसमें हर आदमी को हर दूसरे आदमी के साथ सहयोग करना था....एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करना था.....एक आदमी ये काम करता.....और दूसरा वो काम करता....तीसरा कुछ और....हर आदमी अपने-अपने हुनर और कौशल के अनुसार समाज में अपने कार्यों का योगदान करता....और इस तरह सबकी जरूरतें पूरी होती रहतीं.....साथ ही हारी-बीमारी में भी लोग एक-दूसरे के काम आते....मगर हुआ क्या............??हर आदमी ने अपने हुनर और कौशल का इस्तेमाल को अपनी मोनोपोली के रूप में परिणत कर लिया...........और उस मोनोपोली को अपने लालच की पूर्ति के एकमात्र कार्यक्रम में झोंक दिया.......लालच की इन्तेहाँ तो यह हुई कि सभी तरह के व्यापार में ,यहाँ तक कि चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी लालच की ऐसी पराकाष्ठा का यही घृणित रूप तारी हो गया.....और आज यह राजनीति और सेवा कार्यों में तक में भी यही खेल मौजूं हो गया है....तो फ़िर समाज नाम की चीज़ अगर हममे बची है तो मैं जानना चाहता हूँ कि वो है तो आख़िर कहाँ है....एक समाज के सामाजिक लोगों के रूप में हमारे कार्य आख़िर क्या हैं.....कि हम जहाँ तक हो सके एक-दूसरे को लूट सकें...........????
....................क्या यह सच नहीं कि हम सब एक दूसरे को सहयोग देने की अपेक्षा,उसका कई गुणा उसे लूटते हैं.....वरना ये पेटेंट आदि की अवधारणा क्या है......??और ये किसके हित के लिए है.....लाभ कमाने के अतिरिक्त इसकी उपादेयता क्या है.....??क्या एक सभ्य समाज के विवेकशील मनुष्य के लिए ये शोभा देने वाली बात है कि वो अपनी समझदारी या फ़िर अपने किसी भी किस्म के गुण का उपयोग अपनी जरूरतों की सम्यक पूर्ति हेतु करे ना कि अपनी अंधी भूख की पूर्ति हेतु......??मनुष्य ने मनुष्य को आख़िर देना क्या है.....??क्या मनुष्यता का मतलब सिर्फ़ इतना है कि कभी-कभार आप मनुष्यता के लिए रूदन कर लो.....या कभी किसी पहचान वाले की जरुरत में काम आ जाओ....??..........या कि अपने पाप-कर्म के पश्ताताप में थोड़ा-सा दान-धर्म कर लो.......??
.......................मनुष्यता आख़िर क्या है...........??............अगर सब के सब अपनी-अपनी औकात या ताकत के अनुपात में एक दूसरे को चाहे किसी भी रूप में लूटने में ही मग्न हों....??..........और मनुष्य के द्वारा बनाए गए इस समाज की भी उपादेयता आख़िर क्या है..........??.........और अपने-अपने स्वार्थ में निमग्न स्वार्थियों के इस समूह को आख़िर समाज कहा ही क्यूँ जाना चाहिए..........??.........हम अरबों लोग आख़िर दिन और रात क्या करते हैं........??उन कार्यों का अन्तिम परिणाम क्या है......??अगर ये सच है कि परिणामों से कार्य लक्षित होते हैं.............तो फ़िर मेरा पुनः यही सवाल है कि इस समूह को आखर समाज कैसे और क्यूँ कहा जा सकता है......और कहा भी क्यूँ जाना चाहिए.......??
जहाँ कदम-दर-कदम एक कमज़ोर को निराश-हताश-अपमानित-प्रताडित-और शोषित होना पड़ता है......जहाँ स्त्रियाँ-बच्चे-बूढे और गरीब लोग अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते........??जहाँ हर ताकतवर आदमी एक दानव की तरह व्यवहार करता है........!!??
.........दोस्तों मैं कहना चाहता हूँ कि पहले हम ख़ुद को देख लें कि आख़िर हम कितने पानी हैं.....और हमें इससे उबरने की आवश्यकता है या इसमें और डूबने की........??हम ख़ुद से क्या चाहते हैं.........ये अगर हम सचमुच इमानदारी से सोच सकें तो सचमुच में एक इमानदार समाज बना सकते हैं............!!याद रखिये समाज बनाने के लिए सबसे पहले ख़ुद अपने-आप की आवश्यकता ही पड़ती है........तत्पश्चात ही किसी और की.....!!आशा करता हूँ कि इसे हम पानी अपने सर के ऊपर से गुजर जाने के पूर्व ही समझ पायेंगे..........!!!!
Thursday, February 19, 2009
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