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Tuesday, February 24, 2009

ख्वाब को ख्वाब ही बना रहने दो.....

ख्वाब को ख्वाब ही बना रहने दो.....
ख्वाब कोई आग ना बन जाए कहीं !!
आग के जलते ही तुम बुझा दो इसे
सब कुछ ही ख़ाक ना हो जाए कहीं !!
अपने मन को कहीं संभाल कर रख
तेरे दामन में दाग ना हो जाए कहीं !!
तेरी जानिब इसलिए मैं नहीं आता !!
मेरी नज़रें तुझमें ही खो जाए ना कहीं !!
खामोशी से इक ग़ज़ल कह गया"गाफिल"
इसके मतलब कुछ और हो जाए ना कहीं !!

Monday, February 23, 2009

हम ईश्वर की शरण में आना चाहते थे: ए आर रहमान


हम ईश्वर की शरण में आना चाहते थे 

इस्लाम कबूल करने का फैसला अचानक नहीं लिया गया बल्कि इसमें हमें दस साल लगे। यह फैसला मेरा और मेरी मां दोनों का सामूहिक फैसला था। हम दोनों सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में आना चाहते थे। 
संगीतकार ए आर रहमान ने सन् २००६ में अपनी मां के साथ हज अदा किया था। हज पर गए रहमान से अरब न्यूज के सैयद फैसल अली ने बातचीत की। यहां पेश है उस वक्त सैयद फैसल अली की रहमान से हुई गुफ्तगू। 
भारत के मशहूर संगीतकार ए आर रहमान किसी परिचय के मोहताज नहीं है। तड़क-भड़क और शोहरत की चकाचौंध से दूर रहने वाले ए आर रहमान की जिंदगी ने एक नई करवट ली जब वे इस्लाम की आगोश में आए। रहमान कहते हैं-इस्लाम कबूल करने पर जिंदगी के प्रति मेरा नजरिया बदल गया। भारतीय फिल्मी-दुनिया में लोग कामयाबी के लिए मुस्लिम होते हुए हिन्दू नाम रख लेते हैं,लेकिन मेरे मामले में इसका उलटा है यानी था मैं दिलीप कुमार और बन गया अल्लाह रक्खा रहमान। मुझे मुस्लिम होने पर फख्र है। संगीत में मशगूल रहने वाले रहमान हज के दौरान मीना में दीनी माहौल से लबरेज थे। पांच घण्टे की मशक्कत के बाद अरब न्यूज ने उनसे मीना में मुलाकात की। मगरिब से इशा के बीच हुई इस गुफ्तगू में रहमान का व्यवहार दिलकश था। कभी मूर्तिपूजक रहे रहमान अब इस्लाम के बारे में एक विद्वान की तरह बात करते हैं। दूसरी बार हज अदा करने आए रहमान इस बार अपनी मां को साथ लेकर आए। उन्होने मीना में अपने हर पल का इबादत के रूप में इस्तेमाल किया। वे अराफात और मदीना में भी इबादत में जुटे रहे और अपने अन्तर्मन को पाक-साफ किया। अपने हज के बारे में रहमान बताते हैं-अल्लाह ने हमारे लिए हज को आसान बना दिया। इस पाक जमीन पर गुजारे हर पल का इस्तेमाल मैंने अल्लाह की इबादत के लिए किया है। मेरी अल्लाह से दुआ है कि वह मेरे हज को कबूल करे। उनका मानना है कि शैतान के कंकरी मारने की रस्म अपने अंतर्मन से संघर्ष करने की प्रतीक है। इसका मतलब यह है कि हम अपनी बुरी ख्वाहिशों और अन्दर के शैतान को खत्म कर दें। वे कहते हैं-मैं आपको बताना चाहूंगा कि इस साल मुझे मेरे जन्मदिन पर बेशकीमती तोहफा मिला है जिसको मैं जिन्दगी भर भुला नहीं पाऊंगा। इस साल मेरे जन्मदिन ६ जनवरी को अल्लाह ने मुझे मदीने में रहकर पैगम्बर की मस्जिद में इबादत करने का अनूठा इनाम दिया। मेरे लिए इससे बढ़कर कोई और इनाम हो ही नहीं सकता था। मुझे बहुत खुशी है और खुदा का लाख-लाख शुक्र अदा करता हूं। इस्लाम स्वीकार करने के बारे में रहमान बताते हैं- यह १९८९ की बात है जब मैंने और मेरे परिवार ने इस्लाम स्वीकार किया। मैं जब नौ साल का था तब ही एक रहस्यमयी बीमारी से मेरे पिता गुजर गए थे। जिंदगी में कई मोड़ आए। वर्ष-१९८८ की बात है जब मैं मलेशिया में था। मुझे सपने में एक बुजुर्ग ने इस्लाम धर्म अपनाने के लिए कहा। पहली बार मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन यही सपना मुझे कई बार आया। मैंने यह बात अपनी मां को बताई। मां ने मुझे प्रोत्साहित किया और कहा कि मैं सर्वसक्तिमान ईश्वर के इस बुलावे पर गौर और फिक्र करूं। इस बीच १९८८ में मेरी बहन गम्भीर रूप से बीमार हो गई। परिवार की पूरी कोशिशों के बावजूद उसकी बीमारी बढ़ती ही चली गई। इस दौरान हमने एक मुस्लिम धार्मिक रहबर की अगुवाई में अल्लाह से दुआ की। अल्लाह ने हमारी सुन ली और आश्चर्यजनक रूप से मेरी बहन ठीक हो गई। और इस तरह मैं दिलीप कुमार से ए आर रहमान बन गया। इस्लाम कबूल करने का फैसला अचानक नहीं लिया गया बल्कि इसमें हमें दस साल लगे। यह फैसला मेरा और मेरी मां दोनों का सामूहिक फैसला था। हम दोनों सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण में आना चाहते थे। अपने दुख दूर करना चाहते थे। शुरू में कुछ शक और शुबे दूर करने के बाद मेरी तीनों बहिनों ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया। मैंने उनके लिए आदर्श बनने की कोशिश की। ६ जनवरी १९६६ को चेन्नई में जन्मे रहमान ने चार साल की उम्र में प्यानो बजाना शुरू कर दिया था। नौ साल की उम्र में ही पिता की मृत्यु होने पर रहमान के नाजुक कंधों पर भारी जिम्मेदारी आ पड़ी। मां कस्तूरी अब करीमा बेगम और तीन बहिनों के भरण-पोषण का जिम्मा अब उस पर था। ग्यारह साल की उम्र में ही वे पियानो वादक की हैसियत से इल्याराजा के ग्रुप में शामिल हो गए। उनकी मां ने उन्हें प्रोत्साहित किया और वे आगे बढऩे की प्रेरणा देती रहीं। रहमान ने सायरा से शादी की। उनके तीन बच्चे हैं-दस और सात साल की दो बेटियां और एक तीन साल का बेटा। रहमान ने बताया कि इबादत से उनका तनाव दूर हो जाता है और उन्हें शान्ति मिलती है। वे कहते हैं- मैं आर्टिस्ट हूं और काम के भयंकर दबाव के बावजूद मैं पांचों वक्त की नमाज अदा करता हूं। नमाज से मैं तनावमुक्त रहता हूं और मुझमें उम्मीद व हौसला बना रहता है कि मेरे साथ अल्लाह है। नमाज मुझे यह एहसास भी दिलाती रहती है कि यह दुनिया ही सबकुछ नहीं है,मौत के बाद सबका हिसाब लिया जाना है। रहमान ने अपना पहला हज २००४ में किया। इस बार उनकी मां उनके साथ थी। वे कहते हैं-इस बार मैं अपनी पत्नी को भी हज के लिए लाना चाहता था,लेकिन मेरा बेटा केवल तीन साल का है, इस वजह से वह नहीं आ सकी। अगर अल्लाह को मंजूर हुआ तो मैं फिर आऊंगा,अगली बार पत्नी और बच्चों के साथ। वे कहते हैं-इस्लाम शान्ति,प्रेम,सहअस्तित्व,सब्र और आधुनिक धर्म है। लेकिन चन्द मुसलमानों की गलत हरकतों के कारण इस पर कट्टरता और रूढि़वादिता की गलत छाप लग गई है। मुसलमानों को आगे आकर इस्लाम की सही तस्वीर पेश करनी चाहिए। अपने ईमान और यकीन को सही रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। मुसलमानों की इस्लामिक शिक्षाओं से अनभिज्ञता दिमाग को झकझोर देती है। रहमान कहते हैं-मुसलमानों को इस्लाम के बुनियादी उसूलों को अपनाना चाहिए जो कहते हैं-अपने पड़ौसियों के साथ बेहतर सुलूक करो,दूसरों से हंसकर मिलो,एक ईश्वर की इबादत करो और गरीबों को दान दो। इंसानियत को बढ़ावा दो,और किसी से दुश्मनी मत रखो। इस्लाम यही संदेश लेकर तो आया है। हमें अपने व्यवहार,आदतों और कर्मों से दुनिया के सामने इंसानियत की एक अनूठी मिसाल पेश करनी चाहिए। पैगम्बर मुहम्मद सल्ललाहो अलेहेवसल्लम ने अपने अच्छे व्यवहार,सब्र और सच्चाई के साथ ही इस्लाम का प्रचार किया। आज इस्लाम को लेकर दुनिया भर में फैली गलतफहमियों को दूर किए जाने की जरूरत है। 

सैयद फैसल अली
अरब न्यूज जुमा,13जनवरी,
प्रस्तुति: जहीर हसन खुश्तर 

क्या कहें क्या पता !!

क्या कहें क्या पता !!
कैसी ये आरजू ,क्या कहें क्या पता !
तेरे इश्क में हम, हो गए लापता !!
चलते-चलते मेरी, गुम हुई मंजिलें
जायेंगे अब कहाँ,क्या कहें क्या पता !!
तेरे गम से मेरी,आँख नम हो गयीं
कितने आंसू गिरे,क्या कहें क्या पता !!
सुबो से शाम तक,ख़ुद को ढोता हूँ मैं
जान जानी है कब,क्या कहें क्या पता !!
नज्र कर दी तुझे,जिन्दगी भी ये मेरी
करना है तुझको क्या,क्या कहें क्या पता !!
उफ़ मैं भी "गाफिल"हूँ हाय बड़ा बावला
ढूंढता हूँ मैं किसे,क्या कहें क्या पता !!

Sunday, February 22, 2009

फाइट फॉर राईट में जो लिखा जा रहा है वो आख़िर है क्या

जो लिखा जा रहा है वो है क्या ..........
फाइट फॉर राईट में जो लिखा जा रहा है वो आख़िर है क्या
क्या इसका इस्तमाल फाइट के लिए है या बोलग को स्प्रैड के लिए है

जो कंटेंट दाले जारहे है वो क्या इस ब्लॉग की पहचान है
वो क्या वास्तव में ये पहचान होनी चाहिए इस ब्लॉग के

जब हम देखते है की इस ब्लॉग से कोई अर्तिक्ले आया है तो हमारा मन पढ़ने का करता है पर पाते है
की ये ग़लत जगह पोस्ट किया गया है
जैसेथाली में रोटी हो तो ठीक लगती है पर कटोरी में रोटी हो तोगलते है

आप की राय का इंतज़ार है मुझे
in or out करो या मरो dont wast your time

एक दिन ब्लोगरों का.........!!

दिनांक २२-०२-२००९,स्थान-कश्यप आई मेमोरियल हॉस्पिटल सभागार,रांची (झारखंड)डाक्टर भारती कश्यप,श्री शैलेश भारतवासी,श्री घनश्याम श्रीवास्तव,श्री मनीष कुमार...........तथा अन्य लोगों के सहयोग से पूर्वी क्षेत्र के ब्लोगरों (यानि चिट्ठाकारों)का जमावडा यानि सम्मलेन एक बेहद अनौपचारिक माहौल में हँसी-खुशी भरे होलियाना अंदाज़ में अभी थोडी ही देर पहले संपन्न हुआ....!!स्थानीय पत्र रांची एक्सप्रेस के संपादक श्री बलबीर दत्त जी,दैनिक आज के संपादक श्री दिलीप जी ,स्वयं डॉ. भारती जी ब्लोगिंग की बाबत अपने विचारों से सभी को अवगत कराया.शैलेश जी एवं मनीष जी ब्लोगिंग के तकनीकी पक्षों और इसके सकारात्मक पक्षों पर प्रकाश डाला तथा ब्लोगरों को अनेकानेक चीज़ों की जानकारी प्रदान की.
इस जमावडे में संगीता पुरी(बोकारो)गत्यात्मक ज्योतिषी वाली,पारुल जी (चाँद पुखराज का तथा सरगम),रंजना सिंह,टाटा(संवेदना संसार)शिव कुमार मिश्रा,कोलकाता(शिवकुमार मिश्रा और ज्ञानदत्त पांडे का ब्लॉग)श्यामल सुमन (मनोरमा)शैलेश भारतवासी(हिन्दी युग्म)दिल्ली,मनीष कुमार(एक शाम मेरे नाम और मुसाफिर हूँ यारों),प्रभात गोपाल झा,अंकुर सिंह,पवन कुमार,कामेश्वर कुमार श्रीवास्तव,अनिल चक्रवर्ती,अमिताभ (किससे कहें),अभिषेक मिश्रा(धरोहर)अश्विनी जी,संजीव शेखर(गुडमोर्निंग झारखड),नीरज पाठक,नदीम अख्तर(रांची हल्ला),भूतनाथ, नहीं भाई राजीव थेपडा(बात पुरानी हैएवं रांची हल्ला),आनंद कुमार,सुनील चौधरी(दहलीज,रांची हल्ला),विनय चतुर्वेदी(संघतिया),प्रभाकर अग्रवाल,कौशल आनंद ,विजय पाठक,नरेन्द्र नाथ (आई नेक्स्ट),प्रवीर पीटर,शुभाद्र अखौरी,सीमा कुमारी,सुधा कुमारी,विनय कृष्ण,रंजित कुमार,शकर कुमार,मोहम्मद मुद्दसर नज़र,वरुण सिन्हा,दिवाकर शाहदेव.शांतनु सेन,एस.के.बरियार,लालन कुमार सिंह,अरुण महतो,कुमुद रंजन,उमेश कुमार,संजय पांडे,सुधीर कुमार आदि लोगों ने हिस्सा लिया.
इस कार्यक्रम की ख़ास बात यह रही कि ब्लोगिंग को अभी इस देश में उपयुक्त सम्मान न मिलने और इसके प्रति लोगों के संजीदा ना होने के बावजूद अभी इसकी महज शुरुआत बताते हुए लगभग सभी वक्ताओं ने यह मुखर रूप से कहा कि पहले अखबार,फिर इलेक्ट्रिक मीडिया,फिर टेलीविज़न,फिर इंटरनेट और अब ब्लोगिंग को आने वाले समय की मुख्यधारा बताया जा रहा है.समय के साथ यही मीडिया का विकास है.यहाँ आए तकरीबन सभी ब्लोगरों ने ब्लोगिंग पर अपने विचार बांटे.नेट ब्लोगिंग अनजान लोगों का आपस में मिलना-जुलना हुआ......और एक-दूसरे को यह बताते हुए कि अरे हमने तो सोचा था कि आप ऐसे हो....मगर आप तो ऐसे निकले....!!इस रोमांचक माहौल में सबने अपने अनुभव तो बांटे ही,साथ ही एक दूसरे के दोस्त भी बने.....पारुल जी और श्यामल सखा सुमन ने अपने गीतों और गज़लों से सबको भाव विभोर भी किया....
कुल मिला कर यूँ कि इस क्षेत्र में हुए इस अनौपचारिक से सम्मलेन में इस तरह सबका मिलना-जुलना आने वाले वर्षों में ब्लोगरों की होने वाली अहमियत का आभास करा गया....ब्लोगिंग बेशक कोई आन्दोलन नहीं किंतु वैचारिक दृष्टि का एक महत्वपूर्ण प्लेटफार्म अवश्य बन सकता है....और अब ब्लोगिंग निजी डायरी से ऊपर उठकर एक वैचारिक रूप ले भी रहा है....और देखा-देखी और भी लोग इसके प्रति संजीदा हो रहे है....ऐसे उत्सुक लोगों ने भी इस सम्मलेन में शिरकत की और अपने प्रश्न वक्ताओं के सम्मुख रखे....इस छोटे से किंतु अहम् कार्यक्रम से यह विश्वास पुख्ता हुआ कि आने वाले दिनों में ब्लोगर भी किसी बदलाव का वाहक बनने वाले हैं.....!!

Friday, February 20, 2009

मेरे शहर का एक आदमी.........!!

मेरे शहर का एक आदमी.............!!
..........कब,क्या,क्यूँ,कैसे.........और किस परिणाम की प्राप्ति के लिए होता है......ये किसी को भी नहीं पता.......!!हर कदम पर कईयों भविष्यवक्ता मिलते हैं.....लेकिन अगर आदमी भविष्य को पढ़ ही पाता....तो दुनिया बेरंग ही हो जाती.....!!अभी-अभी हम घर से कहीं जा रहे हों.........और अचानक कहीं किसी भी वक्त हमारे जीवन के सफर का अंत ही हो जाए....!!अभी-अभी हम जिससे मिलकर आ रहे हों........घर पहुँचते ही सूचना मिले कि वो शख्स अभी दस मिनट पहले दुनिया से कूच कर गया........!!हमें कैसा लगे....??हमारे मर जाने की सूचना पर किसी और को कैसा लगे....??
जीवन कैसा है.....जीवन कितना है....जीवक कब तक है....ऐसे प्रश्न तो सबके ही मन में पता नहीं कितनी ही बार उमड़ -घुमड़ करते ही रहते हैं.........मगर जवाब....वो तो सबके ही लिए हर बार ही नदारद होता है.....जीवन को ना जाने कितनी ही उपमाओं से लादा गया है.........मगर इसकी गहराई की थाह भला कौन नाप पाया.........??चलते-फिरते अचानक ही हम पाते हैं की फलां तो चला गया....!!.......हमारे मन में भला कहाँ आता है कि हम ही चले गए.....मौत का स्वाद किसी को भी अच्छा नहीं लगता.........और मौत का रंग...सबको बदरंग.....और हम पाते हैं मगर कि हर और मौत का आँचल लहरा रहा है....हर तरफ़ मौत का खौफ तारी है....!!
.............हर जगह जनसामान्य लोगों के बीच बहुत सारे अलग किस्म के लोग भी होते हैं.....जो समाज की धुंध में......वातावरण के सन्नाटे में कुछ रचते ही रहते हैं.... अपनी ताकत भर कुछ ना कुछ बुनते ही रहते हैं....बेशक समाज उस रचना को बहुत महत्व नहीं देता.....मगर किसी के महत्त्व ना देने भर से अगरचे चीज़ें खारिज हो जाया करती तो,,, मरे हुए लोग सदा-सदा के लिए भूला ही जाते...मगर समय इतना अन्यायी कभी होता कि सबको यूँ ही खारिज कर दे....!!
..........और खारिज किया भी नहीं जाना चाहिए......!!..........रांची जैसे शहर में आज से कोई बीस वर्ष पूर्व एक नाटक का प्रदर्शन हुआ था........"अमली" नाम था उसका.....और इस नाटक के प्रदर्शन के साथ ही रांची के रंगमंच ने जिस शख्स को सही तरीके पहचाना.........उसका नाम था "अशोक कुमार अंचल.....".........बेशक ये नाम नाट्य -जगत में पहले भी सुना जा चुका था.........और पहले ही स्वयम के द्वारा लिखित और निर्देशित नाटक "पागल-खाना" से सु-विख्यात और सु-चर्चित था..........और उनके पागलखाना ने ढेरों पुरस्कार आदि भी बटोरे.........और प्रशंसित भी हुआ.......और अनेकानेक बार मंचित भी.......और सही मायनों में पागलखाना आज के परिवेश की वीभत्स सच्चाईयों को....और क्रूरताओं को बड़ी गहराई से अभिव्यक्त करता था.......अगर यही नाटक दिल्ली या मुम्बई के किसी निर्देशक ने मंचित करवाया होता तो पता नहीं उसे कहाँ-कहाँ और कितने और कितने ऊँचे बैनर के पुरस्कार मिले होते.....मगर चूँकि रांची मुंबई या दिल्ली तो नहीं........सो इस पर चर्चा बेमानी ही है ना.......!!
..........फुल लेंथ प्ले के रूप में अंचल जी का "अमली" नाटक बहुचर्चित और बहुप्रशंसित रहा.........हाँ मगर उसके अनेकानेक मंचन ना हो पाये........मगर उसने रांची के रंगमच पर उस वक्त गहरी छाप छोड़ी.........और उसके लोक गीत अक्सर रांची के कलाकारों के द्वारा गुनगुनाये जाते रहे..........मुझे याद है कि मैं तब रोज रांची के महावीर चौक में अवस्थित संस्कृति विहार में बिला नागा रिहर्सल देखने जाया करता था.........उन दिनों मैं ख़ुद नाटकों का दीवाना था.......और सच कहूँ तो उस उम्र में यानि १८ वर्ष में पचासों नाटक के मंचन बतौर अभिनेता कर चुका था....तो भला अंचल जी से भला दूर कैसे हुआ होता......उनसे हँसी-मजाक और भी ना जाने कितनी ही बातें.......अब तक भी याद हैं......!!
.........और बाद में उनका एक और रूप उभर कर सामने आया उनका कवि....शायर........गीतकार........और तरन्नुम में ग़ज़ल गाने वाला गायक भी होने का........और आज मुझे यह सोचकर आनंद भी हो रहा है........और कातर भी हो रहा हूँ कि........कम-अज-कम मैं उनके साथ पचास से ज्यादा कवि गोष्ठियों में शामिल रहा होऊंगा....और उनकी तमाम रचनाओं का जवाब मैंने अपनी आशुकविता के रूप में उसी वक्त दे दिया करता था.........पहले तो ख़ुद गद-गद हो जाया करते थे....और फिर उनकी प्रंशंसा से मैं ख़ुद भी....!! कादम्बिनी क्लब की माहवार गोष्ठियों में वे बिला नागा उपस्थित होते थे....अभी तक यह सब सोचना बहुत ही मामूली था.........मगर आज यही कार्य बड़ा दुष्कर हो रहा है...और बड़ा ही अजीब............अब तक ये हम दोनों की यादें थीं मगर आज से ये यादें सिर्फ़ मेरी ही रह गयीं.....वो यादों से ऊपर ही उठ गए.....हर महीने उन्हें किसी ना किसी कार्यक्रम में शरीक देखना या अखबार में पढ़ना गोया मेरी दैनिक दिनचर्या में शुमार हो गया था.........कादम्बिनी क्लब का बंद होना इसके सारे सदस्यों को जैसे एकदम से विलग ही कर गया....और जिनकी कविताओं के मैं जवाब दिया करता था........सब के सब अपनी-अपनी व्यस्तता में डूब गए....और सबसे ज्यादा तो मैं ख़ुद.....!!
और उनमें से सबसे ज्यादा हँसता,बोलता,गाता...और पान खाता शख्स आज से हम सबके बीच है ही नहीं....यह कहना तो दूर अभी तो यह सोचना भी अजीब लग रहा है.... अशोक कुमार अंचल....जिनके कृतित्व को मापा जाना अभी शेष है....आकाशवाणी.....दूरदर्शन.........टेलीविजन धारावाहिक....और भी ना जाने क्या-क्या...हाँ मगर सबका रूप नितांत देशी ही.....ख़ुद उनकी तरह....!!जब किसी का कृतित्व उसके ख़ुद के व्यक्तित्व या चरित्र से मेल खाता हुआ सा लगे तो समझ लो वो आदमी ज्यादातर इमानदार ही है...अपने प्रति भी अपने परिवेश के प्रति भी.....और बेशक वो ज्यादा कुछ समाज को देता हुआ प्रतीत नहीं होता.....मगर यह नहीं दे पाना भी उसमें एक अवयक्त किस्म की छटपटाहट के रूप में व्यक्त होता ही रहता है........और मैंने यह बात बेशक कहीं ना कहीं अंचल जी में में देखी.......और वही एक देशी किस्म का अल्हड व्यक्ति एक सड़क दुर्घटना में मारा जा चुका है.....यह बात दिल को पच ही नहीं पा रही..........और मजा यह की दिल्ली में बैठे मेरे मित्रों यथा अनुराग(अन्वेषी)....पराग(प्रियदर्शन).....राकेश(प्रियदर्शी).....आदि लोगों को रात ही पता चल गई.....और मुझे सुबह नौ-दस बजे....और तिस पर भी मैं ना तो उनके घर....और ना ही घाट पर जा पाया..........और अब रात को अपने ही घर में उस शख्स की बाबत अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ....और अभी कुछ ही देर में ये विचार नेट पर प्रकाशित हो जाने को हैं....कहीं उन्हें याद करके भी तो मैं एक स्वार्थ भरा कार्य नहीं कर रहा.....??........यदि ऐसा है तो भाई "अंचल" मुझे माफ़ कर देना.........मुझे पता भी नहीं कि मैं किस किस्म का गुनहगार कहा जाऊं.....!!

Thursday, February 19, 2009

हाय समाज.........हाय समाज...............!!

............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!!
..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु आदमी की जरूरतों के अनुसार उसकी सहूलियतों के लिए बनाई गई एक उम्दा सी सरंचना है....जिसमें हर आदमी को हर दूसरे आदमी के साथ सहयोग करना था....एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करना था.....एक आदमी ये काम करता.....और दूसरा वो काम करता....तीसरा कुछ और....हर आदमी अपने-अपने हुनर और कौशल के अनुसार समाज में अपने कार्यों का योगदान करता....और इस तरह सबकी जरूरतें पूरी होती रहतीं.....साथ ही हारी-बीमारी में भी लोग एक-दूसरे के काम आते....मगर हुआ क्या............??हर आदमी ने अपने हुनर और कौशल का इस्तेमाल को अपनी मोनोपोली के रूप में परिणत कर लिया...........और उस मोनोपोली को अपने लालच की पूर्ति के एकमात्र कार्यक्रम में झोंक दिया.......लालच की इन्तेहाँ तो यह हुई कि सभी तरह के व्यापार में ,यहाँ तक कि चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी लालच की ऐसी पराकाष्ठा का यही घृणित रूप तारी हो गया.....और आज यह राजनीति और सेवा कार्यों में तक में भी यही खेल मौजूं हो गया है....तो फ़िर समाज नाम की चीज़ अगर हममे बची है तो मैं जानना चाहता हूँ कि वो है तो आख़िर कहाँ है....एक समाज के सामाजिक लोगों के रूप में हमारे कार्य आख़िर क्या हैं.....कि हम जहाँ तक हो सके एक-दूसरे को लूट सकें...........????
....................क्या यह सच नहीं कि हम सब एक दूसरे को सहयोग देने की अपेक्षा,उसका कई गुणा उसे लूटते हैं.....वरना ये पेटेंट आदि की अवधारणा क्या है......??और ये किसके हित के लिए है.....लाभ कमाने के अतिरिक्त इसकी उपादेयता क्या है.....??क्या एक सभ्य समाज के विवेकशील मनुष्य के लिए ये शोभा देने वाली बात है कि वो अपनी समझदारी या फ़िर अपने किसी भी किस्म के गुण का उपयोग अपनी जरूरतों की सम्यक पूर्ति हेतु करे ना कि अपनी अंधी भूख की पूर्ति हेतु......??मनुष्य ने मनुष्य को आख़िर देना क्या है.....??क्या मनुष्यता का मतलब सिर्फ़ इतना है कि कभी-कभार आप मनुष्यता के लिए रूदन कर लो.....या कभी किसी पहचान वाले की जरुरत में काम आ जाओ....??..........या कि अपने पाप-कर्म के पश्ताताप में थोड़ा-सा दान-धर्म कर लो.......??
.......................मनुष्यता आख़िर क्या है...........??............अगर सब के सब अपनी-अपनी औकात या ताकत के अनुपात में एक दूसरे को चाहे किसी भी रूप में लूटने में ही मग्न हों....??..........और मनुष्य के द्वारा बनाए गए इस समाज की भी उपादेयता आख़िर क्या है..........??.........और अपने-अपने स्वार्थ में निमग्न स्वार्थियों के इस समूह को आख़िर समाज कहा ही क्यूँ जाना चाहिए..........??.........हम अरबों लोग आख़िर दिन और रात क्या करते हैं........??उन कार्यों का अन्तिम परिणाम क्या है......??अगर ये सच है कि परिणामों से कार्य लक्षित होते हैं.............तो फ़िर मेरा पुनः यही सवाल है कि इस समूह को आखर समाज कैसे और क्यूँ कहा जा सकता है......और कहा भी क्यूँ जाना चाहिए.......??
जहाँ कदम-दर-कदम एक कमज़ोर को निराश-हताश-अपमानित-प्रताडित-और शोषित होना पड़ता है......जहाँ स्त्रियाँ-बच्चे-बूढे और गरीब लोग अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते........??जहाँ हर ताकतवर आदमी एक दानव की तरह व्यवहार करता है........!!??
.........दोस्तों मैं कहना चाहता हूँ कि पहले हम ख़ुद को देख लें कि आख़िर हम कितने पानी हैं.....और हमें इससे उबरने की आवश्यकता है या इसमें और डूबने की........??हम ख़ुद से क्या चाहते हैं.........ये अगर हम सचमुच इमानदारी से सोच सकें तो सचमुच में एक इमानदार समाज बना सकते हैं............!!याद रखिये समाज बनाने के लिए सबसे पहले ख़ुद अपने-आप की आवश्यकता ही पड़ती है........तत्पश्चात ही किसी और की.....!!आशा करता हूँ कि इसे हम पानी अपने सर के ऊपर से गुजर जाने के पूर्व ही समझ पायेंगे..........!!!!

Monday, February 16, 2009

हे ईश्वर !!मैं किसे कम या बेशी आंकू..!!

हे ईश्वर !!
मनुष्यता का भला चाहने वाले लोग
इतने सुस्त और काहिल क्यूँ हैं....
जबकि इसी का खून करने वाले
देखो ना कितनी मुस्तैदी से
अपना काम निपटाया करते हैं....!!
हे ईश्वर !!
मनुष्यता....मनुष्यता...और
मनुष्यता की बातें करने वाले
सिर्फ़ बातें ही क्यूँ करते रह जाते हैं....
अगरचे इसी का हरण करने वाले
दिन-रात इसका चीरहरण करते रहते हैं...!!
हे ईश्वर !!
मनुष्यता को सम्भव बनाने वाले लोग
सदा यही क्यूँ सोचते रहते हैं कि
मनुष्यता कायम करना बड़ा ही कठिन है...
जबकि दरिंदगी से इसकी हत्या करने वाले
कितनी सफलतापूर्वक अपना कार्य करते हैं....!!
हे ईश्वर !!
मनुष्य की जान बचाने वाले इतना डरते क्यूँ हैं
कि अपने घर से बाहर ही नहीं निकलते..
किसी की जान बचाने के लिए
अगरचे मनुष्य की जान लेने वाले...
अपनी देकर भी किसी की जान ले लेते हैं....!!
मैं अकसर ये सोचता हूँ कि
मैं किसे कम या बेशी करके आंकू
वो,जो सीधे-सीधे आदमी की जान लेकर
आदमियत को बदनाम करते हैं....
या वो, जो आदमी की बाबत सिर्फ़
बतकही में व्यस्त रहते हैं....और
सेमिनारों में जाम भरते हैं....!!??

पब कोई संस्कृति नहीं है बल्कि विकृति है

प्रिय भारत वासियों वन्देमातरम
एक बहस है कि पब संस्कृति को आगे बराना चाहिए कि नहीं
* सबसे पहली बात तो यह कि पब कोई संस्कृति नहीं है बल्कि विकृति है, अतः विकृति को फैलाना चाहियी कि नहीं स्वयं ही विचारें
* जो शिला दिक्षित मुख्य मंत्री दिल्ली इसके समर्थन में है तो वो बताएं कि स्त्री/पुरुष के शौचालय फिर अलग-अलग रखने कि क्या जरुरत है?
*वैश्या वृति पर भी आयकर लगाने में क्या बुराई है?
*ब्लू फिल्मों को सामान्य फिल्म कि तरह क्यों नहीं माना जाये?
*पोर्न वेबसाइट को कही भी देखे जाने में क्या बुराई है?
*स्कूल में सेक्स एजूकेशन देते समय स्टुडेंट आपस में सेक्स सम्बन्ध बनाकर प्रैक्टिकल भी करले जिस पर मार्कस भी मिलने चाहिए, इत्यादी अनेक प्रश्न है? जिसका उत्तर आप ख़ुद दे आपने आप को

अम्बरीष मिश्रा
वन्देमातरम

Wednesday, February 11, 2009

अंहकार का गणित जीवन को नष्ट कर देता है,,,,!!

अंहकार और मुर्खता एक दूसरे के पर्याय होते हैं.....मूर्खों को तो अपने अंहकार का पता ही नहीं होता....इसलिए उनका अहंकारी होना लाजिमी हो सकता है मगर...अगर एक बुद्धिमान व्यक्ति भी अहंकारी है तो उससे बड़ा मुर्ख और कोई नहीं....!!
जिस भी किस्म लडाई हम अपने चारों तरफ़ देखते हैं....उसमें हर जगह अपने किसी न किसी प्रकार के मत...वाद....या प्रचार के परचम को ऊँचा रखने का अंहकार होता है.....इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति...समूह....धर्मावलम्बी....राष्ट्र...यहाँ तक कि किसी भी भांति का कोई भी आध्यात्मिक संगठन तक भी एक किस्म के अंहकार से अछूता नहीं पाया जाता......यही कारण है कि धरती पर शान्ति स्थापित करने के तमाम प्रयास भी इन्हीं अहंकारों की बलिवेदी पर कुर्बान हो जाते हैं.....प्रत्येक मनुष्य को ख़ुद को श्रेष्ठ समझने की एक ऐसी भावना इस जग में व्याप्त है कि ये किसी अन्य को ख़ुद से ऊँचा समझने ही नहीं देती...........और यही मनुष्य यदि किसी भी प्रकार के समूह से सनद्द हो जाए तो उसके अंहकार की बात ही क्या....फ़िर तो उसे और भी बड़े पर लग जाते हैं....तभी तो हम यहाँ तक देखते हैं कि शान्ति की तलाश में किसी गुरु की शरण में गया व्यक्ति भी अपने गुरु को उंचा या महान साबित करने की चेष्टा करता बाकी के गुरुओं को छोटा या हेय तक बता डालता है.....और यहाँ तक कि गुरु भी यही कर्म करने में ख़ुद को रत रखता है....!!
हमारे जीवन में हमारे छोटे-छोटे अंहकार हमारे जीवन के बहुत सारे समय को खोटा कर देते हैं.....और हम सदा दूसरे को कोसते अपना समय नष्ट करते जाते हैं.....बहुत साड़ी परिस्थितियों में बेशक यह सच भी हो दूसरा ही दोषी हो....मगर इससे हमारा अहंकारी होना तो नहीं खारिज होता ना......नहीं होता ना....!!..........मैंने देखा है कि थोड़ा-सा झुक-कर या सामने वाले की बात को ज़रा सा मान कर....या उसे ज़रा सा घुमाव देने के लिए मना कर बहुत सारे झगडे पल भर में समाप्त किए जा सकते हैं....मगर हर हालत में यह संभावना सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम में ही व्याप्त है.....और मजा यह कि अंहकार के वक्त हममें प्रेम होता ही नहीं.....या फ़िर होता भी है तो वह कुछ समय के छिप जाता है....मगर एक बार हमारे मुहं से ग़लत-सलत बात के निकल जाने के पश्चात वाही अंहकार हममें ऐसी जड़ें जमाता है कि हम फ़िर अपने वक्तव्य से पीछे हटने को राजी ही नहीं होते....और जिन्दगी के तमाम झगडे सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी वजह से जिन्दगी भर कायम रह जाते हैं.....कोई भी पक्ष किसी भी किस्म के राजी नामे की ना तो पहल करता है....और ना ही सामने वाले की पहल उचित सम्मान देकर उसका स्वागत करता है....या अपनी और से प्रतिक्रिया स्वरुप कोई कदम बढाता है....तमाम झगडों के बाद सामने वाले के प्रति हमारे मन में इक शाश्वत धिक्कार का भाव पैदा हो जाता है....जो हममे से विदा होने का नाम ही नहीं लेता..........सच तो यह है कि इसी वजह से हम सबने अपने जीवन को नर्क बना लिया होता है.....!!
अंहकार और मुर्खता एक दूसरे के पर्याय होते हैं.....मूर्खों को तो अपने अंहकार का पता ही नहीं होता....इसलिए उनका अहंकारी होना लाजिमी हो सकता है मगर...अगर एक बुद्धिमान व्यक्ति भी अहंकारी है तो उससे बड़ा मुर्ख और कोई नहीं....!!इसलिए दोस्तों इस वक्त.........बल्कि तमाम वक्त समस्त पृथ्वी वासियों को हमें प्रेम का संदेश फैलाने की जरुरत है..........मगर उससे पूर्व ख़ुद को प्रेममय बना लेने की जरुरत है.........बदला एक किस्म की राक्षसी भावना है.....इसका इसी वक्त तिरस्कार कर हमें सदा के लिए अपने मन को प्रेम की चुनर पहना देनी होगी.........यदि सचमुच ख़ुद से.....हरेक से....संसार से....या प्राणिमात्र से तनिक भी प्रेम करते हैं.....तो यह काम अभी और इसी वक्त से शुरू हो जाना चाहिए....!!आप सबको भूतनाथ का अविकल प्रेम.....!!

Sunday, February 8, 2009

मन बहुत पगला रहा है....!!

मन बहुत पगला रहा है....!!

मन बहुत अकुला रहा है...
ख़ुद को अभिव्यक्त ही कर पा रहा है....
शरीर इक शव बन गया है...
और दिल भी पत्थर हुआ जा रहा है....
जिनको सौंप कर अपना कीमती इक-इक वोट
निश्चिंत हो गए हैं एकदम से हम...
वही हर इक शख्स....
हमारे चिथड़े-चिथड़े कर रहा है...
और हमारी चिन्दियाँ-चिन्दियाँ.....
नोच-नोच कर खाए जा रहा है....
दिन भर की कसरत के बाद भी....
किसी को नसीब नहीं बीस रुप्पल्ली....
बीस-बीस हज़ार माहवार पाने वाला कामगार....
राज-ब-रोज हड़ताल पर जा रहा है.....
मेरे आस पास ये भूखे...नंगे और
बदहाल लोगों की भीड़-सी कैसी है.....
मेरा देश तो बरसों से ही शाईनिंग इंडिया....
शाईनिंग इंडिया की दुदुम्भी बजा रहा है.....
हर तरफ़ गंदगी-ही-गंदगी का आलम है.....
अबे चुप करके बैठ जा ना तू.....
मेरा नेता अभी ऐ.सी. की हवा में......
चैन की बंशी बजा रहा है.....
मेरा दिल किसी करवट.....
चैन ही नहीं पा रहा है....
ना जाने ये किस आशंका से घबरा रहा है.....

Thursday, February 5, 2009

मेरी तस्वीर को सीने से लगाता क्यूँ है ?

मुझसे ना मिलने की कसम खाता क्यूँ है ?
मेरी तस्वीर को सीने से लगाता क्यूँ है ?
अनदिखा सा रहता है क्यूँ मुझको यारब
और लोगों से मिरा दीदार कराता क्यूँ है ?
वक्त मरहम है,दिल को तसल्ली देता है,गर
तो फ़िर वो हमें खंजर चुभाता क्यूँ है ?
दिल को मेरे भी जरा तपिश तो ले लेने दे
साए से मेरे धुप चुरा कर ले जाता क्यूँ है ?
हश्र तक भी जो पूरे ना हों ऐसे मिरे यारब
सपने हम सबको दिखाता है,दिखाता क्यूँ है ?
तेरे चक्कर में घनचक्कर हुआ हूँ मैं "गाफिल"
मेरी मर्ज़ी के खिलाफ मुझे चलाता क्यूँ है ?
०००००००००००००००००००००००००००००००००००
०००००००००००००००००००००००००००००००००००
एक बात तो बता अ दोस्त......
तुझे प्यार करना अच्छा लगता है......
या नफरत करना..........??
धत्त.......
ये भी भला कोई पूछने की बात है.....
प्यार करना.....और क्या....!!
क्यूँ....अ मेरे दोस्त ??
क्यूंकि प्यार से ही दुनिया....
दुनिया बनी हुई रहती है.....!!
हुम्म्म्म्म्म्म्म
बस मेरे दोस्त.....
मुझे तुझसे यही पूछना था....!!

Sunday, February 1, 2009

# केवल सन्सद मे ही विस्वास मत क्यो !

जरा सोचिये कि ...................
  • 1,00,000 लाख किसी चुनाव छेत्र के वोट और पड़ने वाले वोटो की संख्या
  • 0,40,000 हज़ार (40 % ) पडे वोट
  • 8,000 जीतने वाला पयेगा क्योकि .....
  • चार बडे दल और निर्द्लीय मिलाकर पाच तो
  • 40,000 / 5 = 8,000
  • सब वोटो में जीतने वाला पयेगा केवल (लगभग ) 8% वोट
  • ( ये 8% लोग होते है सरकारी कर्मचारी + गुन्डे + द्लाल जिन्को सरकार के उस व्यकित् को जीतना होताहै जो कि इन्के अपने काम मे रोडा लगाये और जिससे भ्रष्टाचार को मिले बढाबा ......। )
  • इससे एक बात तय होती है कि जितने वाले को { 100% - 8% = 92%}


  • =92% जनता का अपने छेत्र के नेता पर विस्वास नही है .........

  • दूसरी बात

  • केवल सन्सद मे ही विस्वास मत क्यो !
  • जिनको जनता ने वोट दिया है उन्को भी तो मौका दो ..............
  • मेरा कहने का मतलब है कि ..........
  • party no :1 = 8%
  • party no : 2 = 10%
  • party no : 3 = 5 %
  • party no : 4 =11 %
  • others : 5 = 7 %
  • --------------------
  • total = 40 %
  • ==============
  • जैसा कि मैने उपर कहा है कि ......
  • 40 % वोट मे 11% वाला जितेगा ..............पर 1,00,000 में ..... 50 % से अधीक अनिवार्य हो तो ,
  • party no :1(8%) + party no :5 (7%)+ party no :3(5%) = 20% + या पूरे का 50 % हो तो
  • मिल्कर सरकार बना सकते है
  • इसमे जो पूरे वोटिंग का 51 % जो स्द्स्य को समर्थन मिलेगा वो सरकार में जनता ka प्रेतीनिध होगा
  • मे जयेगा .... that is MLA / MP and others ( chairman etc)कलायेगा !
  • और एक नेता दुसरे नेता कि बुराई को छोड उसकी तारीफ़ कर्ता नज़र आयेगा और........
  • इससे नेताओ का जन्सम्पर्क बढेगा और जनता का फ़ायदा
  • इस प्र्कार तीन दलो के वोट देने वालो का फ़ायदाहोगा 51% से अधीक लोगो के छेत्र मे काम होगा ।
  • कि उन लोगो का जो थोडे से लोग जो अपने फ़ायदे के लिये सरकार बनते है
  • सरकार सब की होनी चाहिये जितने वोट डालने जाये उतनो की तो होनी ही चहिये .......... है कि नहीतो फिर अप्नी राय पोस्ट करे .... धन्य्बाद .... .........
  • आपका
  • अपना अम्बरीष ..............

कलम का सिपाही प्रतियोगिता में भाग लें!

''कलम का सिपाही बनें'' और जीतें 1000 रुपए,भाग लेने के लिए ३ दिन शेष
कलम का सिपाही प्रतियोगिता मे भाग लेने के लिए अब ३ दिन शेष है ,जल्दी कीजिये और लिख भेजिए अपनी कविता ''कलम का सिपाही''प्रतियोगिता के लिए !!दोस्तों हमारा मकसद है हिंदी को उसका जायज मुकाम दिलाना जिसमे आपका सहयोग जरुरी है !!तो देर मत कीजिये,इंतज़ार मत कीजिये !! आज ही भेज दीजिये अपनी कविता,हम किसी एक विजेता को १००० रुपए और प्रमाण पत्र से सम्मानित करेंगे!!प्रतियोगिता की शर्तों और अधिक जानकारी के लिए देखें!!


प्रतियोगिता कलम का सिपाही