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Saturday, April 2, 2011

जय भारत....जय हिन्दुस्तान....
ये जीत भारत के जज्बे की है...अनुशासन की है....और टीम भावना की है.....
इस जीत का सबक यह है कि अगर भारत अन्य क्षेत्रों में भी यही टीम भावना-अनुशासन और जज्बे से काम करे तो वह हर क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर बन सकता है....
भारत के लोगों को चाहिए कि वो देखें कि किस तरह देश के एक होना चाहिए और अपने स्वार्थ त्याग कर भारत के हित में कार्य करना चाहिए....
 भारत....भारत....भारत....भारत.....हर एक जिहवा में यही एक नाम है.....
भारत नाम का यह शब्द कभी मिटने ना पाए.....आईये इस बात का हम सब संकल्प करें.....
भारत की आन-बान-शान को बनाए रखने का हम सब मिलकर प्रयास करें.....
 जश्न----जश्न ....और जश्न .....हर तरफ जोश  ....जूनून  ....हुजूम .....और शोर -शराबा .....
ऐसा मंजर भला कब दिखाई देगा.....जिसे हमारे बच्चे याद रखेंगे.....
 आईये हम सब भी मिलकर कुछ ऐसा करें.....कि अपने-अपने स्तर पर किसी ना किसी प्रकार के धुनी....युवराज....और गंभीर या सचिन बन सकें..
भीड़.....भीड़.....भीड़....बधाईयाँ.....और आने वाले कल की शुभकामनाएं.....
 दुनिया का उभरते हुए भारत का सलाम.....और अन्य देशों को चुनौती.....
मैं अब विकल हूँ इस बात के लिए....कि भारत का जन-जन भारत के लाभ के लिए और इसके गौरव के लिए कार्य करे.....काश कि अब भी हमारे नेताओं को सदबुद्धि आ सके...
क्यूंकि वही देश के गौरव को और उंचा उठाने में देश के जन-जन की मदद कर सकते हैं....
देश के हर नागरिक के लिए जीवन यापन की उचित सुविधाएं अगर ये लोग उपलब्ध करवा सकें.....तो सचमुच भारत सही मायनों में जीत पायेगा,,,,,जय भारत....जय हिन्दुस्तान....



ये जीत भारत के जज्बे की है...अनुशासन की है....और टीम भावना की है.....
इस जीत का सबक यह है कि अगर भारत अन्य क्षेत्रों में भी यही टीम भावना-अनुशासन और जज्बे से काम करे तो वह हर क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर बन सकता है....
भारत के लोगों को चाहिए कि वो देखें कि किस तरह देश के एक होना चाहिए और अपने स्वार्थ त्याग कर भारत के हित में कार्य करना चाहिए....
 भारत....भारत....भारत....भारत.....हर एक जिहवा में यही एक नाम है.....
भारत नाम का यह शब्द कभी मिटने ना पाए.....आईये इस बात का हम सब संकल्प करें.....
भारत की आन-बान-शान को बनाए रखने का हम सब मिलकर प्रयास करें.....
 जश्न----जश्न ....और जश्न .....हर तरफ जोश  ....जूनून  ....हुजूम .....और शोर -शराबा .....
ऐसा मंजर भला कब दिखाई देगा.....जिसे हमारे बच्चे याद रखेंगे.....
 आईये हम सब भी मिलकर कुछ ऐसा करें.....कि अपने-अपने स्तर पर किसी ना किसी प्रकार के धुनी....युवराज....और गंभीर या सचिन बन सकें..
भीड़.....भीड़.....भीड़....बधाईयाँ.....और आने वाले कल की शुभकामनाएं.....
 दुनिया का उभरते हुए भारत का सलाम.....और अन्य देशों को चुनौती.....
मैं अब विकल हूँ इस बात के लिए....कि भारत का जन-जन भारत के लाभ के लिए और इसके गौरव के लिए कार्य करे.....काश कि अब भी हमारे नेताओं को सदबुद्धि आ सके...
क्यूंकि वही देश के गौरव को और उंचा उठाने में देश के जन-जन की मदद कर सकते हैं....
देश के हर नागरिक के लिए जीवन यापन की उचित सुविधाएं अगर ये लोग उपलब्ध करवा सकें.....तो सचमुच भारत सही मायनों में जीत पायेगा,,,,,जय भारत....जय हिन्दुस्तान....




Wednesday, March 23, 2011

य काफिया और रदीफ़ तो हटा दे जाहिद ,ज़रा मेरे हर्फ़ ग़ज़ल में समां जायें !!
जिंदगी का हर लम्हा ही एक मकता है ,हर शै के बाद दूसरी शै ही आ जाए !!
मुश्किलों ने हमसे कर ली है अब तौबा, अब अगर जो वो रास्ते में आ जाए !!
उम्र को ही पैराहन की तरह ओढ़ा हुआ है,मौत जब आए,इसी में समां जाए !!
अब तो तू ही तू नज़र आता है यारब,जहाँ में जहाँ-जहाँ तक मेरी नज़र जाए !!
हम हर्फ़ को ही खुदा समझाते हैं यारा,हर हर्फ़ की ही जद में खुदा आ जाए !!
इक जरा मन को कडा कर लीजिये ,हर फिक्र धूल में उड़ती ही नज़र आए !!
इतनी कड़ी निगाहों से ना देखिये हमें,कहीं खुदा ही घबरा कर ना आ जाए !!
दुनिया में रसूख उसी का होता है,जिसे,रसूख की फिक्र कभी भी ना सताए !!
सिर्फ़ मुहब्बत का भूखा हूँ"गाफिल",प्यार से मुझे कोई कुछ भी खिला जाए !!
किसी के बाप की नहीं है यह धरती....!!  
                 दोस्तों धरती पर रह रहे तमाम लोगों के बारे में यह बात सुस्पष्ट रूप से कही जा सकती है की धरती पर के सारे लोग अंततः धरती का भला चाहते हैं,और तकरीबन हर कोई शायद धरती को स्वर्ग ही बनाना चाहता है,अब यह बात अलग है कि इस सपने को फलीभूत करने के लिए जो कर्म करने होते हैं,उन्हें करना तो दूर,सही तरह से उनपर विचार भी नहीं किया जाता...तो आदमी द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की बातें दरअसल एक मज़ाक ही लगती हैं...एक बहुत बड़ा बेहूदा मज़ाक...!!जो धरती के हर एक कोने में लाखों-करोड़ों लोग हर वक्त विलापते रहते हैं....और बड़े सुकून से ठीक उसी वक्त वो धरती का सीना छलनी करते हुए होते हैं....जिस वक्त वो धरती के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हुए होते हैं...और एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि धरती को सबसे ज्यादा छलनी करने वाले या इसे लूटने वाले लोग ही धरती को सुन्दर बनाने की बातें करते हैं,तथा इसे करने के लिए वो तरह के दान-धर्म आदि भी करते हैं...और इस तरह वो दानवीरता के "कर्ण"कहलाये जाते हैं...और धरती के समाज पर उनका प्रभुत्व अन्य लोगों की अपेक्षा और-और-और बढ़ता जाता है...!!
                     दोस्तों जिस तरह हम सब इंसान धरती पर जीने के लिए अपने लिए बेहतर से बेहतर संसाधन चाहते हैं और सुख से जीना चाहते हैं....ठीक उसी तरह धरती भी हमसे ऐसा ही चाहती है,किन्तु धरती मूक है...यह हमसे कभी कुछ नहीं बोलती इसलिए हम यह समझ ही नहीं पाते...दोस्तों धरती पिछले बहुत से समय से आदमी वेदना से तड़प रही है...हमने तरह-तरह के कैंसर से धरती को इतना ज्यादा पीड़ित कर दिया है कि धरती इन घावों से से बुरी तरह छटपटा रही है....किन्तु,चूँकि वह हमसे कुछ नहीं बोलती....सो उसकी तड़प को हम नहीं समझ पाते.....और ना ही अपनी उस माँ,जिसने हमें जन्म देकर पाला-पोषा और बड़ा करके ऐसा बनाया कि हम उसकी गोद में एक बेहतरीन जीवन को अंजाम दे सकें....उस माँ के असीम दर्द को देखने की चेष्टा तक नहीं करते हम सब....और मजा यह कि धरती पर के सबसे श्रेष्ठ जीव भी हम सब मानव ही हैं.....यह स्वनामधन्यता हमारी इस लाचार माँ की पीड़ा और कसक को और भी ज्यादा बढाए देती हैं...!!
                  सबसे पहले तो दोस्तों हमें यह बात और तमीज हमेशा के लिए हमारे जेहन में धर लेनी चाहिए कि यह धरती हम इंसानों में सबके या किसी भी एक के बाप की नहीं है...यह धरती इस पर रह रहे तमाम असंख्य प्राणियों की भी है...जिन्हें हम जानते और नहीं जानते हैं...मगर उफ़ हमने उन असंख्य प्राणियों को धरती पर से ना सिर्फ बेदखल करते जा रहे हैं,बल्कि इस तरह से धरती के बहुरंगी पने को,इसकी विविधता को भी जान-बूझकर मिटाए दे रहे हैं....यह सब महज इसलिए कि हम मानव -जात शान से रह सकें....??किन्तु यहाँ भी हम मानव-जात एक तुच्छ जात ही साबित हुए जाते हैं... क्यूंकि जिस धरती को हम अपने लिए सुख की सेज बनाए रखना चाहते हैं....उसी धरती को अपने सुख और सेज के लिए ना जाने कितने ही अगणित बाशिंदों को भूखे-बेहाल-कंगाल और मरने की हद तक लाचार बनाकर रखा हुआ है...जब कुछ करोड़ लोग इस धरती पर मौज-मठ्ठा/हंसी-ठठ्ठा कर रहे होते हैं....ठीक उसी वक्त अरबों लोग भूख से तड़प रहें होते हैं....पानी के लिए,रोटी के लिए और कुछ अन्य साधनों के लिए आपस में मारामारी कर रहे होते हैं...!!
                 यह बहुत अजीब बात है कि जो धरती किसी एक के बाप की नहीं है,इस धरती का एक छोटा-सा टुकडा भी किसी एक की जागीर नहीं है...उस धरती पर जन्म लेने वाले लोग धरती के टुकड़े- टुकड़े कर बेच-खा रहे हैं....और उन टुकड़ों की खातिर कुत्तों से भी ज्यादा बुरी तरह से लड़-झगड़ रहें हैं...और धरती के इन तरह-तरह के टुकड़ों के लिए खून की नदियाँ तक बहा देने में इन्हें कोई संकोच नहीं है...!!(धरती के कुत्ते मुझे क्षमा करेंगे...आदमी के इस विषय में उन जैसे वफादार जीवों का नाम घसीटे जाने को लेकर मैं सचमुच बेहद शर्मिन्दा हूँ...!!)  
                    दोस्तों...धरती का हर-एक कण हम सबके लिए हैं....जिनका उपयोग हमें हमारे सम्यक जीवन जीने के लिए करना था...और खुद को एक सभ्य जात या प्राणी मानने के (स्वनामधन्य एवं अतिरंजित)गुण के कारण अपने पास के किसी भी एक अतिरिक्त कण को अन्य आदमी को प्रदान कर उसे उसके जीने में सहयोग प्रदान करना चाहिए था....किन्तु बजाय ऐसा करने के हमने धरती के इन तरह-तरह से जीवन-दायिनी और सुख-दायिनी कणों को संपत्ति बनाकर उस संपत्ति को तरह-तरह से अपने पास रखने का दुष्कर्म करना शुरू कर डाला....यह दुष्कर्म आज जिन उंचाईयों तक जा पहुंचा है... कि अरबों भूखे-नंगे लोगों के बीच अरबों डालरों की संपत्ति कमाए हुए लोगों को अपना नाम अमीर लोगों की लिस्ट में देखना बजाय शर्म,एक हेंकड़ी-एक अहंकार-एक गौरव का अहसास करता है...और मजा यह कि धरती पर के ही संसाधनों को अपनी ताकत से अपने हक़ में इस्तेमाल कर अमीर से अमीरतम बने हुए लोगों की हेंकड़ी यह है कि उन्होंने यह सब अपनी बुद्धि से किया है...एक मजेदार बात है यह कि आदमी अपनी अपनी बुद्धि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ अपने लिए धन-संपत्ति और बल पैदा करने और उसे और बढाते जाने के लिए करता है.....दूर के लोगों की बात तो छोडिये...उसके खुद के सगे-सम्बन्धी भी भूखे हो सकते हैं....और फिर भी ऐसे लोगों का सम्मान समाज में तनिक भी कम नहीं होता...!!
                  दोस्तों इस धरती पर हर जगह बुद्धि का परचम लहरा रहा है....और अपना धन या ताकत इसलिए सबको वाजिब प्रतीत होता है,क्यूंकि बुद्धि द्वारा स्थापित तर्क इसे सही साबित हैं करते हैं...यह अहंकार कि यह सब मैंने अपने कर्म और बुद्धि से पाया है....यहाँ यह बात गायब कर दी जाती है कि ज्यादातर यह हासिल वाजिब या न्याय-संगत तरीकों से ना होकर शाम-दाम-दंड-भेद-तीन-तिकड़म- छल-कपट यहाँ तक कि धूर्तता-मक्कारी से किया गया होता है....ऊँचे दर्जे का यह कपट हमारी व्यवस्था से मान्यता प्राप्त होता है....क्यूंकि हम व्यवस्था के विभिन्न तरह के लोग या कल-पूर्जे इसी तरह से अपना पोषण "ग्रीस-मोबिल"आदि प्राप्त करते हैं....हमारी मिलीभगत से हम सब जो,जिस भी किस्म के उद्योग-धंधे या व्यापार में शामिल होते हैं....इस मिलीभगत से अपने कुछ लोगों को प्रश्रय देते हैं....बाकी सबको बाहर कर देते हैं...!!इस तरह से हमारे कुछ लोगों का समूहीकरण अंततः धरती की सामूहिकता को नष्ट करते जाते हैं...क्यूंकि धरती की सामूहिकता उसकी प्रकृति में व्याप्त जीवनोनुकुल नासर्गिकता है जो सबको जीने के व्यापक अवसर प्रदान करती है....जबकि हम मानव प्रत्येक प्राणी के लिए मौजूद इन अवसरों को अपने स्वार्थजनित कुप्रयास-कुप्रबंधन द्वारा तोड़ते चले जाते हैं....!!
                हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे प्रयासों के कारण धरती भीतर से खोखली और बाहर से हरीतिमा-विहीन,प्रदूषित और ना जीने लायक होती चली जा रही है.....और इसे इस हालत तक लाने की जिम्मेवार ताकतें ही इसकी मानव-जाति का नेतृत्व कर रही हैं,किये जा रही हैं...करती जाएंगी...!!
बुद्धि के साथ विकास के कुप्रबंध का कोई उदाहरण देखना हो तो यह पृथ्वी के हर उस कोने में देखा जा सकता है,जहां भी आदमी नाम का जीव मौजूद है...जो अपने सिवा धरती के हर एक चीज़ को मते दे रहा है....और अपने में से भी कमजोर लोगों को मते दे रहा है....पता नहीं ऊपर वाले ने आदमी को बनाए जाते समय इस भयावह समय की कल्पना की थी या नहीं...मगर अगर धरती आज जीने योग्य साधनों से रिक्त होती जा रही है तो उसका कारण महज आदमी का अतिलालच-अतिअहंकार-अतिस्वार्थ और अतिबुद्धिवादिता है....और आदमी ही यह समझता नहीं....अपनी अतिबुद्धिवादिता के ही कारण...जहां-जहां ही अति बुद्धिनिष्ठ है...वहां-वहां उसने धरती पर के संसाधनों और मानव तथा प्राणिजगत के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाये हुए है...और ऐसा करना चूँकि वह अपनी बुद्धि के बूते हुए होना मानता है...इसलिये उसे अपनी यह बपौती ना सिर्फ वाजिब बल्कि यही सही है,ऐसा लगता है उसे...!! 
                  दोस्तों पढ़े-लिखे और सभ्य होने का अगर सिर्फ धन कमाने और इस धन कमाने के लिए दूसरों का हक़ छीनना भर है....तो लानत है इस सभ्यता पर...तो फिर छोडिये भी धरती को स्वर्ग बनाने के कपट-भरे विचार को और यह कहिये कि हम सिर्फ अपने लिए ऐसा कहते हैं और अपने लिए ही ऐसा करना भी चाहते हैं....तो ज्यादा ईमानदारीपूर्ण होगा और मानवीयता के ज्यादा करीब भी... किन्तु एक और तो मानवता की बातें....और दूसरी तरफ सिर्फ व् सिर्फ तमाम अमानवतापूर्ण कृत्य यह हमारे चरित्र को बिलकुल भी शोभा नहीं देते....अगर हम यह मानते हैं कि हम तनिक भी चरित्रवान हैं...और हाँ यह भी सही है कि हम आगे भी ऐसा ही करते रहने वाले हैं....तो फिर दोस्तों आज से यह सब बातें बंद.....!!क्या बंद....??धरती को स्वर्ग बनाने की बातें या इसके पर्यावरण के नष्ट होते जाने की चिंता भरी बातें......!!आप बस अपना काम किये जाओ....जो भोगना है.....हमारी संताने भोग लेंगी ना.....अपन को चिंता काहे को लेने की.....!!!!

Wednesday, March 16, 2011


ओह जापान....तुम फिर से वैसे ही सुन्दर बन जाओ....!! 
                 जो कुछ घट रहा होता है हमारे सामने,उससे विमुख हम कभी नहीं रह सकते...बहुत बार बहुत सी बातों पर हमारी आँखे भर-भर आती हैं...मगर कुछ भी हमारे बस में नहीं होता हम बस तड़प कर रह जाते हैं...जापान की विभीषिका एक ऐसी ही दुर्घटना है...जिस पर अपने भाईयों के लिए सिवाय मंगलकामनाएं और शुभकामनाएं प्रेषित करने के कुछ नहीं कर सकते...धरती पर जापान नाम की इस जगह के हमारे तमाम भाई बंधू जल्द-से-जल्द इस त्रासदी के परिणामों को झेल कर आने वाले कल में एक बार फिर एक सुन्दर-मजबूत और अकल्पनीय जापान के निर्माण को अग्रसर हों,ऐसी हमारी कामना है....हमारे जापानी भाईयों,विपदा की इस अभूतपूर्व घडी में हजारों मील दूर बैठे हम सब आपके साथ हैं...!!!!

Friday, March 11, 2011

सपने में भी रोकती है बेटियाँ....!!
एक बिटिया दस वर्ष की हो गयी है मेरी 
और दूसरी भी पांच के करीब....
कभी-कभी तो सपने में ब्याह देता हूँ उन्हें 
और सपने में ही जब 
जाता हूँ अपनी किसी भी बेटी के घर....
तो मेरे सीने से कसकर लिपट कर 
खूब-खूब-खूब रोती हैं बेटियाँ....
मुझसे करती हैं वो 
खूब-खूब-खूब सारी बातें....
अपने घर के बारे में 
माँ के बारे में और 
मोहल्ले के बारे में...
और तो और कभी-कभी तो 
ऐसी-ऐसी बातें पूछ डालती हैं 
कि छलछला जाती हैं अनायास ही आँखे 
और जीभ चुप हो जाती है बेचारी...
पता नहीं कितने तो प्यार से 
और पता नहीं कितना तो..... 
खाना खिलाये जाती हैं वो मुझे....
और जब चलने लगता हूँ मैं 
वापस उनके यहाँ से....
तो एक बार फिर-फिर से...
खूब-खूब-खूब रोने लगती हैं बेटियाँ 
कहती हैं पापा रुक जाओ ना....
थोड़ी देर और रुक जाते ना पापा....
कुछ दिन रुक जाते ना पापा....
पापा रुक जाओ ना प्लीज़...
हालांकि जानती हैं हैं वो 
कि नहीं रुक सकते हैं पापा.....
मगर उनकी आँखे रोये चली जाती हैं....
और पापा की आँख सपने से खुल जाती है....
देखता हूँ....बगल में सोयी हुई बेटियों को....
छलछला जाता हूँ भीतर कहीं गहरे तक...
चूम लेता हूँ उनका मस्तक....
देखता हूँ....सोचता हूँ...बहता हूँ....
कि उफ़ कितनी गहरी जान हैं मेरी बेटियाँ....!!!

-- 
http://baatpuraanihai.blogspot.com/

Wednesday, March 9, 2011

सुनो....सुनो.....सुनो....सुनो.....
ओ देवियों....
ओ संसार की तमाम नारियों...
बालाओं...कन्याओं....
इस,बीते महिला-दिवस के बाद...
तुम्हारे ऊपर अब किसी पुरूष का
कोई अत्याचार नहीं होगा....
संसार-भर के मीडिया में
महिला-दिवस के प्रचारित होने के बाद
सहम गया है संसार-भर का पुरुष....
और कसम खा ली है उसने कि....
अब नहीं करेगा वह नारी का अ-सम्मान
तो हे सम्पूर्ण नारियों....
अब विश्व-विजेता हो तुम...
और अब आगे चलेगी तुम्हारी ही मर्ज़ी
अब चार साल से बारह साल की बच्चियां
नहीं फ़ेंक दी जायेंगी कहीं कुकर्म के बाद...
और किसी चलती लड़की पर,
कभी तेज़ाब नहीं फेंका जाएगा....
अब कोई अरुणा नहीं पड़ी रहेगी....
सैतीस साल तक किसी अस्पताल के बिस्तर पर...
और ना ही पच्चीस सालों तक लड़ना पडेगा,
किसी भंवरी देवी को कचहरी में न्याय....!!
कोई किसी नारी को जीते-जी....
किसी तंदूर में नहीं भूनेगा....
और ना ही कोई आरूषी अपने ही माँ-बाप से
ह्त्या का शिकार बन पाएगी.....
और तो और अपने इस भारत में
अब कहीं कोई दहेज़-ह्त्या नहीं होगी....
यहाँ तक कि किसी मनचले की किसी....
छेड़खानी का शिकार भी नहीं बनेगी कोई लड़की....
और रात को अकेले चल सकोगी तुम सब भयहीन,सड़कों पर
और सारे पियक्कड़ और क्रोधी पति भी आठ मार्च के बाद
अपनी स्त्री को अपने जुल्म का शिकार नहीं बनायेंगे...
और ना ही अब समझी जायेगी किसी स्त्री की योनि...
अपनी तिजोरी के धन या जमीन की भांति अपनी मिलकियत
हे दुनिया की तमाम देवियों...
कितनी आशावादी हो ना तुम सब....
अब तो मैं भी तुम सबकी तरह इस आशा का शिकार हो चुका हूँ
ऐसा लगता है कि किसी(ब्राहमण) ने ठीक ही कहा है....
कि साल अच्छा है.....(चाहे बरसों पहले....!!)
आठ मार्च के बाद ऊपर लिखा हुआ ही होगा....
यानी कि कोई जोर और जुल्म नहीं होगा तुमपर....
यह सब होगा और जरूर होगा.....मगर....
तुम सबकी मृत्यु के पश्चात.....!!
(अभी-अभी आज के प्रभात-खबर में पढ़ा कि बीती रात
या दिन बारह साल की एक बाला को
कुकर्म करके हत्या कर खेत में फ़ेंक दिया गया) 

--
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Sunday, February 13, 2011

एक बात कहूँ मैं तुमसे......??
अभी-अभी लाए हो ना तुम पूरे सौ रुपये की किताबें...
और कल ही डांट दिया था मुझे पच्चीस रुपयों की टॉफियों के लिए....
जो बच्चों के लिए लायी थी मैं,और तुमने कहा कि देखकर खर्च किया करो !!
मन मसोस कर रह गयी थी मैं,मगर कुछ कह ना पायी,क्योंकि 
कमाकर लाने वाले तो तुम हो,कैसे कमाया जाता है,यह हम क्या जाने 
अक्सर यह जताते हो हमपर तुम,और हम सचमुच शर्मिन्दा हो जाते हैं उस वक्त 
कमाकर लाना सचमुच आसान तो नहीं है बहुत,मगर बार-बार यह जतलाना तुम्हारा
हमें बहुत-बहुत-बहुत पीड़ित कर डालता है,यह शायद तुम कभी नहीं जान पाते....
क्योंकि उस वक्त हमारे तकरीबन भयभीत मुख तुम्हें ताकत प्रदान करते हैं....
और तब तुम और-और-और हावी हो जाते हो हमपर.....तुम ऊँचे...हम बौने....!!
लेकिन एक बात कहूँ मैं तुमसे...यदि तुम सचमुच तहे-दिल से सुन सको...??
अक्सर घर खर्च मांगती हुईं हम स्त्रियाँ अपने पतियों से "घूरी"जाती हैं....
या लगभग लताड़ ही जाती जब अपने बच्चों या सास-ससुर के सन्मुख....
तब ऐसा लगता है कि यह पैसा हम घर खर्च के लिए नहीं बल्कि....
अपनी ऐश-मौज-मस्ती वगैरह के लिए ले रही होंओं....
और मज़ा तो यह कि हम इसका हिसाब बताने लगें तो कहोगे 
कि तुमसे हिसाब भला कौन मांग रहा है...कि नौटंकी कर रही हो....
और हिसाब ना देन...तो ताने मिलते हैं...कि कोई हिसाब ही नहीं है हमारा....!!
हमारी इन तकलीफों को कभी किसी के द्वारा समझा ही नहीं गया है...
मगर हम किस तरह की कुंठा में जी रही हैं,यह बता भी नहीं सकती पति से...
यह व्यवस्था तो हम सबने मिलकर ही बनायी है ना...
कि हम घर में काम करें और तुम सब कमाकर लाओ....!!
तुम घर चलाने का इंतजाम करो और हम घर चलायें....!!
फिर दिक्कत किस बात की है...क्यूँ भड़कते तो तुम बात-बात पर...
और ख़ास कर खर्च की बात पर....
तुमसे पैसे लेकर क्या हम किसी बैंक के लॉकर में रख डालती हैं,अपने निजी खाते में...
या कि तुम्हारे या अपने बच्चों का कोई इंतजाम करती हैं....!!
सच तो यह है कि अपने बच्चो और तुम्हारी खुशियों के सिवा 
हमें कुछ ख्याल तक भी नहीं आता...और तुम्हारे मर्मान्तक प्रश्न...
हमें कहीं बहुत-बहुत-बहुत भीतर तक घायल कर देते हैं अक्सर....!!
काश तुम्हें कभी कोई यह बता सके कि हम भी तुम्हारी तरह ही एक (जीवित)जीव हैं 
और तुमसे एक ऐसा अपनापन चाहिए होता हैं हमें....
कि हम तुममें छिपकर कोई सपना बुन सकें....
और यदि कोई बात बुरी लगे तो तुमसे लिपटकर जार-जार रो सकें...
काश तुम कभी किसी तरह से यह जान सको कि.....
तुम पति के बजाय एक दोस्त बन सको हमारे....
तो हमारी गलतियां हमारे लिए कभी पहाड़ ना बन सकें....
और हम जी सकें एक-दूसरे के भीतर रमकर....
और बच्चों को दिखा सकें प्रेम के तरह-तरह के रूप 
हम सब बन सकें हम सबके बीच आश्चर्य का प्रतिरूप...!!  


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                                                    हालात बद से बदतर क्यूं होते चले जाते हैं ??
                                         (क्योंकि..........इक ब्राहमण ने कहा है......कि ये खेल अच्छा है.....!!)
                        कभी-कभी जब मै भारत की विभिन्न समस्याओं पर विचार करते हुए इसके कारणों पर जाता हूं,तो अक्सर उनको खत्म करने के लिए जो फ़ैसले मेरे जेहन में आते हैं,भारत के तकरीबन सारे नौकरीपेशा सरकारी कर्मचारियों के हितों के खिलाफ़ जाते हैं और तब मैं सोचता हूं कि शायद इस देश की अधिसंख्य समस्याओं को कभी नहीं मिटाया जा सकेगा,क्योंकि इसे मिटाने के रास्ते में आढे आने वाले होंगे खुद स्वार्थी भारतीयों के व्यापक हित, या कहूं कि स्वार्थ,तो यह ज्यादा समीचीन होगा !यह मैं क्यूं कह रहा हूं इसे आप जरा समझिये !!
               दोस्तों दुनिया भर में हम प्रत्येक उत्पाद को उसकी क्वालिटी के आधार पर तौलते हैं,प्रत्येक वह वस्तु,जो हमारे विचार के निम्नतम मानकों या फिर किसी भी तरह के संगठन या सरकारी मानक पर सही उतरती है,सिर्फ़ उसे ही हम अपनाना जारी रखे रहते हैं,उससे कम वाली वस्तु को तत्काल खारिज़ कर देते हैं,यह अलिखित व्यवस्था शायद हमारे समाज के रूप में संगठित होने के समय से चली आ रही है और इसीलिए तमाम क्वालिटी वाले उत्पाद कुछ ही समय में बाज़ार पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेते हैं और उन्हें बनाने वाली कंपनियां एक ब्राण्ड नाम बन जाती हैं और अपने उस ब्राण्ड को यथाशक्ति कायम रखने का यत्न करती हैं तथा उन वस्तुओं को उपयोग में लाने वाला प्रत्येक उपभोक्ता भी अपने मन में एक तरह की राहत महसूस करता है,इसी प्रकार समाज के अन्य स्थानों पर भी यह लिखित और अलिखित व्यवस्था कायम दिखाई देती है जैसे स्कूल-कोलेज और अन्य तमाम संस्थानों में बच्चों-युवाओं और कर्मचारियों का मामला है,जहां बच्चों-युवाओं और कर्मचारियों को उनके प्रदर्शन के आधार पर नंबर,ग्रेड या वेतन आदि दिए जाते हैं,यानि कि जो बेहतर है,उसे बढिया और जो खराब है उसे उसे खराब ही कहा जाता है,यहां तक कि जो जितना बढिया या खराब है,उस आधार पर भी यही बात होती है,इस प्रकार यह ग्रेडिंग-मार्क और वेतन तरह-तरह का भी हो सकता है,होता है !

              लेकिन दोस्तों भारत के मामले में और खासकर कि सरकारी क्षेत्र में यही मामला एकदम से उलट जाता है,तमाम नैतिक और आदर्शवादी चिंतन "झाडने" वाले और निजी क्षेत्र के लोगों को तरह-तरह के पाठ पढाने वाले यही सरकारी लोग अपने काम के मामले में अपनी सारी बौद्धिकता मानो एकदम से खो ही देते हैं,यहां तक कि अपना काम भी नहीं करते,यहां तक कि अपना ही काम करने के लिए सरकार से लिए जा रहे वेतन के बावजूद अपने सम्मूख खडे हुए अपने ही समाज के प्रत्येक व्यक्ति से "अनुदान"(घूस,रिश्वत,कमीशन या जो भी कहिए) लेते हैं !और उसके बाद भी ये उस काम कराने वाले को दौडाते हैं !महंगाई और अन्य मुद्दों पर बात-बात पर आंदोलन करने वाले ये लोग अपने ही काम से विमूख और किसी की जान ले लेने की हद तक लापरवाह होते हैं,शर्म जिनको रत्ती भर भी छू नहीं गयी होती है !
              और इसका परिणाम क्या है ? इसका परिणाम यह है दोस्तों कि बिना काम के या कि राई बराबर काम के और वो भी उस काम को करने के एवज में लिए जाने वाले "अनुदान" के कारण ये लोग आर्थिक रूप से अत्यंत सुदढ होते चले जाते है,इनके घर में तमाम तरह के साधन मौजूद हो जाते हैं,जो दरअसल उस किसी ईमानदार कर्मचारी की खिल्ली उडाते हुए प्रतीत होते हैं,जिन बेचारों ने रोजी-रोटी के जुगाड से ज्यादा कभी कुछ सोचा ही नहीं होता, ! इन ईमानदार लोगों को कभी इन स्थितियों पर क्षोभ होता है,कभी क्रोध आता है तो कभी अपने-आप पर शर्म आती है,क्योंकि उनके बच्चे वो सब नहीं हासिल कर रहे होते जो भ्रष्ट लोगों के बच्चे कर रहे होते हैं,उनकी बीवीयां वो मस्ती नहीं कर रही होती जो उन भ्रष्ट लोगों की पत्नियां करती होती हैं !!.....अगर यह सब भी छिपे-छिपाए हुए हो तो शायद ईमानदार लोग अपनी जिंदगी अपनी तरह से जीते रहें मगर होता यह है कि तमाम भ्रष्ट लोग तमाम ईमानदार लोगों का मज़ाक बनाया करते हैं,यहां तक कि ईमानदार लोग अपनी ईमानदारी पर गर्वित होना त्याग कर शर्मिंदा होने लगते हैं !!
             दोस्तों,यही वो स्थिति है जो किसी भी जगह को बदहाल बनाने लगती है,कोढ बन कर सारे शरीर को गलाने लगती है,घुन बनकर सारे चरित्र को खाने लगती है,क्योंकि अपनी सारी विवेकशीलता के बावजूद भी इंसान एक ऐसा जीव है,जो ज्यादातर दूसरों की देखा-देखी करता है....और इस प्रकार सारे समाज का आचरण बदलने लगता है और एक समय समुचे समाज का चरित्र ही बदल जाता है....क्योंकि खुशहाल तो दोस्तों हर कोई ही होना चाहता है,मैं भी...आप भी और इसी तरह सब ही.....!!और इस खुशहाली का हर रास्ता वाया "धन-सम्पत्ति" होकर ही जाता है और इस धन-सम्पत्ति का शार्ट-कट बेईमानी-धूर्तता-भ्रष्टाचार-अनैतिकता ही है,भले उससे कितनी ही अराजकता क्यों ना फैल जाती होओ.....और समाज एक बदबूदार गंदे "स्लम"
में तब्दील क्यूं ना हो जाता होओ !!
            ऐसे में ओ दोस्तों !आप सब ऐसा विचार कर भी कैसे सकते हो कि भारत कभी सुधर भी सकता है,जब आप लकडी से दीमक निकालने के बजाय उसे अपने प्रत्येक क्षण पोषित करते जाते हो,आपका हर कदम उन दीमकों को अपार भोजन प्रदान करता है,क्योंकि ये लोग अब ढेर-ढेर-ढेर सारे हैं,इतने कि एक समुचा "वोट-बैंक"...और आप इनकी अनदेखी कर अपने पेट (सीट!!) लात नहीं मार सकते....ऐसे ही लोगों को आप बचाते हो,ऐसे ही लोगों को आप प्रोन्नत करते हो...ऐसे ही लोगों को आप कर्मठ,ईमानदार और देश के जान देकर भी काम करने वाले देवता-समान लोगों के बराबर वेतन देते हो...और ऐसे ही लोग,जो अपने लिए जाने वेतन के बावजूद अपने सम्मूख उपस्थित "उपभोक्ता" को चूस कर अपना खून बढाता है...को अपने साथ रखकर "श्रेष्ठ-बेहतर और बेहतरतम" लोगों का मान-मर्दन करते हो...तब आप देश की सम्स्याओं का अन्त होने का सपना?? कैसे देख सकते हो...??
            दोस्तों,अगर वक्त रहते इस दोषपूर्ण प्रणाली में बदलाव नहीं किया गया तो इस देश के शिक्षक बच्चों को बे-ईमान और करप्ट ही बनाते रहेंगे...बिजली वाले,पानी वाले,सडक वाले,उर्जा वाले,वन वाले,विग्यान वाले,ग्रामीण-विभाग वाले,लोक-कल्याण वाले,सेल्स-टैक्स वाले,इनकम-टैक्स वाले,कामनवेल्थ वाले,नगर-निगम-पालिका वाले,पुलिस वाले,ट्रैफ़िक वाले,ये विभाग वाले,वो विभाग वाले,सब विभाग वाले....सब के सब हम भारतीयों द्वारा दिए गये विभिन्न तरह के टैक्सों से हर साल लाखों-लाख करोड (जी हां,हर महकमे में होने वाले भ्रष्टाचार का निम्नतम अनुमान भी लाखों करोड की राशि पर जाकर ठहरता है और इसी के लिए तो यह मारामारी है भाईयों...!!)खा-खाकर ऐश-मौज भी करते रहेंगे...डकारते भी रहेंगे....स्विस-बैंकों में अपना धन भी रखते रहेंगे...जो आज दो लाख करोड रुपये है....कर चार....परसों पांच लाख करोड रुपये भी हो जाएगा...तो आपके बाप के बाप के बाप का बाप भी क्या कर लेगा.....??है क्या दस का दम किसी भारतीय में.....??है क्या कोई सच्चा भारतीय....??
            दोस्तों !! चिल्लाते ही रह जाएंगे हम मरे हुओं से भी बदतर लोग.....और बेच कर खा जाएंगे भारत को भारत के ही तमाम "हरामी" (प्लीज़ यही कहने दीजिये मुझे !!) लोग....और स्वर्ग??(नरक नहीं क्या??) जाकर हम चिल्लायेंगे.....ईंडिया शाईनिंग....ईंडिया शाईनिंग.....इक ब्राहम्ण ने कहा है......कि ये खेल अच्छा है.....!!!!

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http://baatpuraanihai.blogspot.com/

Friday, January 28, 2011


ख्वाजा मेरे ख्वाजा ....दिल में समां जा ......श्याम की राधा....अली का दुलारा...ख्वाजा मेरे ख्वाजा !!.....एक धुन सी हर वक्त दिल में मचलती रहती है...हर किसी के प्रति प्यार में पगा ये दिल किसी-न-किसी को अपने पास ही नफरत के शोलों से भड़कता देखकर दिन-रात परेशान होता रहता है!! सबको इस जीवन में इंसानों के बीच ही रहना है,और वो भी अपने आस-पड़ोस के लोगों के बीच ही......मगर सबके-सब एक अनदेखे-अनजाने खुदा... भगवान...गाड...आदि के पीछे ऐसे बावले....उतावले हुए रहते हैं कि मारकाट तक पर उतारूं हैं.....!!मन्दिर- मस्जिद-गिरिजा से इस नामालूम से ईश्वर को बाहर लाकर अपने बीच के रिश्तों में खड़ा कर दिया है इसे ....!! हम सब एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के भरोसे के लिए,एक-दूसरे के प्यार के लिए जीते हैं ....!दूसरे के लिए जीना ही प्यार है...और दूसरे के लिए मर-मिटना ही उस प्यार की पराकाष्ठा !! मगर खुदा या भगवान के लिए मरना और मारना उस प्यार और इंसान की ही नहीं बल्कि खुदा या भगवान् की भी तौहीन है ...शायद ये मारने वाले नहीं जानते...मगर चंद हत्यारों के कुकर्मों के कारण आपसी विश्वास की चूले हिलने लगी हैं और उसका दुष्परिणाम आगे क्या होने को है ....क्या ये खुदा अथवा भगवान् या गोड के बन्दे कभी समझ भी पायेंगे ?? ईश्वर का सही स्थान देवालयों या फ़िर अपने ख़ुद के ही दिल में होता है....सबसे उचित स्थान तो निस्संदेह हमारा दिल ही है ...जहाँ जरा सी गर्दन झुकाई और यार की सूरत देख ली !!.... मगर दिल की और रुख ना करने वाले आदमी को चैन ही नहीं है ...सब गोया इसी बात के लिए बेचैन हैं कि जिसे वो पूजते हैं सिर्फ़-व्-सिर्फ़ वाही श्रेष्ठ है और बाकी के सब-के-सब भी उसे ही पूजें !!यही उस पागलपन की इन्तेहाँ है ,जो हमें बावलों की तरह लडाती रहती है.......!!!! और तो और जिस बुद्धिजीवी वर्ग से इसका समाधान पाने की आशा की जाती है वो ख़ुद भी इस पागलपन का अगुआ बन बैठता है !!....ब्लॉग वगैरह से लेखक लोग आपसी अनबन के कारण निकाले जा रहे हैं ...कोई एक दूसरे को समझने-समझाने के प्रयास नहीं करता !!बस यही कि हमें नहीं फुर्सत तुम्हें समझने की..चलो भागो यहाँ से ....पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं हमें समझाने !! ... यह प्रचलन ,यानि कि दूसरे को समझने कि कोई चेष्टा नहीं करना या दूसरे को अपने सामने बिल्कुल ही तुच्छ समझना हर किस्म के वर्ग में है ............यह सब हम सबमें दूरी बढ़ा रहा है.....यह सब हमें समाधान तो क्या,और भी गहरी समस्या की और ले जा रहा है .....मगर शायद हम ये तो समझते ही नहीं या फ़िर अपने अंहकार की वजह से समझना ही हैं चाहते !!...........मगर हम कहाँ जा रहे हैं ...हमारा भविष्य क्या है...यह कोई भी विवेकवान व्यक्ति बिना सोचे ही बता देगा !!.............अगर हम सचमुच ही अपने-आप को सभ्य और विवेकशील मानते है तो अभी-की-अभी इस पर निर्णय लेना होगा....तथा हर समुदाय के व्यक्ति को अपने उग्रपंथियों को काबू में करना होगा तथा कट्टरपंथियों पर भी लगाम कसनी ही होगी.....वरना ये लोग हमें जहाँ ले जायेंगे ,उसकी तस्वीर की कल्पना भी भयावह है !!...........अब सिर्फ़-व्-सिर्फ़ आदमी ही बनकर रहा जा सकता है इससे कमतर की जो बात सोचतें हैं वे दुनिया को सिर्फ़ पीछे ही ले जा सकते है मगर दुनिया पीछे जाने के लिए बनी ही नहीं है ....वह तो या तो आगे ही जायेगी ..या फ़िर ऐसे लोगों की वजह से मिट जायेगी !!!

Monday, January 24, 2011


                   कोटि-कोटि नमन तुझे है......





हे स्वर साधक......सूर सम्राट.......सरस्वती भक्त
तुझे विश्व की विनम्र श्रद्धांजलि.........................
तुझे शत-शत नमन करते हैं हम......................
तुझे ह्रदय में बिठा-रखेंगे हम...........................

Saturday, January 22, 2011



क्या याद है तुम्हें,जब हम मिले थे कभी पहली-पहली बार...
कहाँ याद होगा भला तुम्हें,तुम्हें भला इतनी फुर्सत ही कहाँ...
मैं बताती हूँ तुम्हें,तुम अवाक रह गए मुझे देखकर...
और आँखों-ही-आँखों में मेरी प्रशंसा की थी,और मैं खुश हो गयी
मैं खुश हो गयी थी इस बात पर कि,कोई इस तरह भी देखा करता है 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम भी खुश हो गए....
अपने पहले ही देखने में दिल दे चुके थे मुझे तुम...
मगर मैंने तुम्हें तौलने में कुछ वक्त लगाया....
क्यूंकि लड़कियां अक्सर इस तरह दिल नहीं दिया करती...
और फिर कुछ मुलाकातों में ही यह तय हो गया कि तुम मेरे हो 
उन दिनों तुम मेरी हर बात का कितना ख्याल रखते थे...
हर छोटी-छोटी बात पर बिछ-बिछ जाया करते थे,सर नवा कर 
और मुझे लगता कि मुझे समझने वाला इक सच्चा हमदर्द मिल गया 
मेरे अकेलेपन को बांटने वाला एक सही इंसां मिल गया है....
और मैं भी मर मिटी थी तुमपर,तुमसे भी ज्यादा...
तुम सोचते थे मैं यही चाहती हूँ...बस यही चाहती हूँ...खुश रहना 
इसी आधे सच से गुजर रहा था हमारा प्यार...इकरंग हमारा संसार...
और तब हमने शादी कर ली अपने घर वालों के विरोध के भी बाद 
और बना बैठे हम अपने सपनों का नया इक संसार 
जहां हमारे बीच प्यार था,मनुहार था,चुहल थी,तकरार थी....
और भी बहुत कुछ था,जिसमें साथ-साथ बिताते थे हम कितना ही वक्त 
बाँटते थे अपने सारे मुद्दे...गम...बातें...चुटकुले और हंसी....
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम इतने में खुश रहते थे....
बेशक मैं भी खुश थी तुम्हारी ही तरह....क्यूंकि तुम मुझमें खुश थे
और यह सिलसिला कुछ दिन तक चला...
उन दिनों मैं बहुत मादक-कमनीय और अद्भुत आकर्षक थी तुम्हारी नज़र में 
और मेरी नज़र में दुनिया के सबसे समझदार और प्यार करने वाले पति...
एक-एक कर फिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए....और मैं ढीली-ढाली तुम्हारी नज़र में 
मेरी कमनीय देह दो बच्चों को जन्म देकर वैसी नहीं रह पायी थी...
जैसा कि देखने की आदत पड़ी हुई थी तुम्हें बिलकुल टाईट या कसी हुई
मेरे स्तन लटक गए थे और योनि भी शायद कुछ ढीली...
तुम्हारी नज़र अब नयी बालाओं पर जा टिकती थी....
और मैं ताकती थी तुम्हें टुकुर-टुकुर,तुम्हारी भूख का आभास करती...
हालांकि बच्चों को प्यार तुम खूब करते थे और कर्तव्य सारे पूरे 
हंसती-खेलती गुजर रही थी इसी तरह गृहस्थी हमारी 
तुम अब भी कोशिश करते थे मुझे सदा खुश रखने की और...
सब कुछ पूरा किया करते थे अपनी पूरी तल्लीनता के साथ...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...और मैं भी खुश रहती थी तुम्हारे संग..
तुम्हारी अर्द्धांगिनी बन सदा पूर्ण परिवार का वायदा निभाती हुई....

कुछ लड़कियां भी दोस्त थी तुम्हारी,जो बेहिचक घर आती थीं...
मुझे कभी कोई शक नहीं हुआ,कि तुम वैसे नहीं हो,औरों की तरह...
मगर एक दिन जो मेरे बचपन का दोस्त आया था मुझसे मिलने हमारे घर
मैंने ताड़ लिया था तुम्हारी आँखों में कोई शक....तुम्हारा कोई डर...
और फिर उसके बाद मैनें कभी अपने पुरुष मित्र को नहीं आने दिया अपने घर 
हम हमेशा साथ चलते रहे....बच्चे हमारे बड़े होते रहे...हम सब खुश-खुश ही रहे 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...मैं इसी तरह जी रही थी तुम्हारे आसपास 
तुम्हारे शौक मेरे सर माथे पर...और मेरी हॉबी हमारी गृहस्थी में बाधक 
मैं भी कुछ रचना चाहती,मैं भी कुछ गढ़ना चाहती थी...और 
सोचती रहती थी सारा-सारा दिन जाने तो क्या-क्या...
मगर समझ ही नहीं आता था इस तरह बंधे-बंधे करूँ मैं आखिर क्या...
पढना-लिखना-गाना-नाचना और पेंटिंग हो गए सब हवा...
बच्चे और तुम जब घर आ जाते थे तो मैं खुश ही रहती थी सदा...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम्हारी चाहना पूरी करते हुए मेरे 
तुमने बाहर जो भी चाहा...वो लगभग हासिल ही किया..
मैं भीतर हमारा(या सिर्फ तुम्हारा)घर संभालती रही...
और मैंने जो भी सपना देखा....मन मसोस कर रह गयी...
कई बार सोचा था कि तुमको कुछ दिल की बात कहूँ...मगर 
कुछ तुम्हारी व्यस्तताओं के,कुछ किसी भय के कारण कहने से रह गयी 
और इसी तरह मेरी सारी आकांक्षाएं एक-एक करके ढह गयी...
जो सोचा,वो कभी कह ना सकी-लिख ना सकी-रच ना सकी 
बंदिशों में गृहस्थी को संवारती हुई परिवार का घर चलाती रही 
हर चीज़ में मर्ज़ी तुम्हारी होती...यहाँ तक कि रसोई भी तुम्हारी मर्ज़ी की 
और तुम थोडा छुट दे देते तो पूरी होती बच्चों की मर्ज़ी...
मैंने कभी नहीं जाना सच कि आखिर मेरी मर्ज़ी है क्या...
और कभी मर्ज़ी ने खोले पंख तो भयभीत होकर सिमट गयी मैं खुद 
गृहस्थी को कभी आंच ना आये मेरे कारण,मैंने मर्ज़ी समेट ली 
सबकी मर्ज़ी को जीते हुए अपने बच्चों की शादी भी कर दी 
अब भी थोड़ी तुम्हारी मर्ज़ी चलती है,फिर बच्चों की,फिर बच्चे के बच्चों की 
सबकी इच्छाओं में मैं सदा से अपना जीवन बून रहीं हूँ 
सबकी सब तरह की हवस को पूरा करते मैं खुद में खुद को ढूंढ रही हूँ
सबको लगता है,मैं यही चाहती हूँ...मैं नारी हूँ....पुरुष की एक सहगामिनी....और 
मैं समझ नहीं पा रही अब किसी के सम्पूर्ण साथ होकर भी अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!   

Wednesday, January 19, 2011

ऐ...तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है.....!!
तेरे भीतर भी कोई आवाज़ है....
तेरे अन्दर भी कोई साज है....
तू सभी चीज़ों का आगाज है....
तू, तू है....कोई और नहीं....एक जीवंत राज है   
तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है....
ऐ...तू कभी तेरे को पहचान ना कभी....
कि तेरे भीतर भी कोई आदमी आग है....
बस....पता नहीं क्यों इसपर....
जन्मों-जन्मों से बिछी हुई राख है...
ऐ पागल...तू,तू है....तेरे भीतर भी कोई है..
कोई व्यक्तित्व...कोई निजता....कोई आत्मा....
तू नहीं है किसी के विलास का एक साधन मात्र 
मगर,अगर तू ऐसी ही रही...तो समझ ले कि 
ऐसा ही रहेगा यह आदम भी जैसे-का-तैसा 
एक अनंत यौनिकता...एक बर्बर भूख...
अगर तू इसकी मान ले तो बहुत अच्छा....

अगर नहीं तो ताकत के सहारे आक्रमण कर देगा 
और कहेगा कि नहीं हो सकता आज के युग में ऐसा...
नहीं यह सिर्फ एक तरफ़ा सोच नहीं है मेरी....
अपने चारों तरफ देख रहा हूँ यही एक भूख....
अनंत काल से अनन्त रूप से भूखी भूख....
मगर ऐ पागल....तेरा काम सिर्फ यही तो नहीं है ना...?
किसी के साथ कुछ रात गुजार देना....
किसी के देखने के लिए अपनी मांसलता संवार लेना...
क्या महज एक जिस्म है तू....?
जैसा कि तूने बना दिया है खुद को....!!
अगर ऐसा कुछ ही खुद को मानती है तू....
तब तो मुझे तुझसे कुछ नहीं कहना....मगर,
अगर सच में तू एक निजता है...एक व्यक्तित्व..एक आत्मा..
तो इसे पहचान ना री पगली....
निरी पशु बन कर क्या जीए जा रही है तू....
थोड़े से क्षेत्रों में कुछेक नौकरियां करके भी....

तू बनाए तो हुए है खुद को विलास का एक हूनर....
कहीं मजबूरी....तो कहीं खुद आगे बढकर....!!
जिन्दगी क्या है....कभी सोचा भी है तूने....?
तो भला क्या सिखा सकती है तू अपने बच्चों को...!!
और जिन बच्चों ने तुझसे कुछ नहीं जाना....
क्योंकि तूने खुद ने ही नहीं जाना....
तो कैसा बनाएंगे....जिन्दगी को वे....

और कैसी बनेगी बिना जाने हुए बच्चों से यह धरती....
(जैसी कि बनती जा रही है,कैरियर के लिए लड़ते 
और हवस को पूरा करने में खुद को झोंकते ये युवा...)
अरी ओ पगली....तू तो है जन्म देने वाली....
किसी को जन्म देने से पहले......
कम-से-कम अब तो खुद को पहचान....
ज़रा यह तो सोच कि कितनी विराट है तू....!!
तेरे भीतर पलता है एक अनंत व्याकुल जीवन....
इस जीवन की व्याकुलता को सही दिशा में साध....
तू है इस धरती पर एक गहन-गह्वर योगिनी....

तू मत बन पगली महज एक बावली भोगिनी....
कि तू....सच में तू है अगर....
तो आ....अपनी प्यास को पहचान....
अपने-आप से कोई नयी बात कर.....
अपने बच्चों को कोई नयी प्यास दे....
अपनी तलाश कर....अपना गुमां पहचान
देख ना री....यह धरती कुम्भलाई जा रही है....
तू अनन्त की इस भीड़ में मत खो जा री....
तेरे आने वाले बच्चे तुझसे बड़ी आस में है...


यह धरती एक नयी नस्ल की तलाश में है....!!
अब इस भीड़ में तू अपने लिए एक अनंत वीराना बून....
फिर देख दुनिया तेरे भीतर यूँ सिमट जाएगी....
जैसे कि इक भक्त में.....समा जाता है....परमात्मा....!! 

Saturday, January 15, 2011


ए बन्दर…
बोलो सरकार…
सबसे बडे चोर को कहते हैं क्या…
महाचोर सरकार…!
और चोरों के प्रमुख को…?
चोरों का सरदार…!
अगर तू कोई चीज़ चुरा लाये
तो दुनिया चोर तुझे कहेगी या मुझे…
हमदोनों को सरकार…!

लेकिन चोरी तो तूने ना की होगी बे…
लेकिन मेरे सरदार तो आप ही हो ना सरकार…!
ये नियम तो सभी जगह चलता होगा ना बन्दर…
हां हुजूर और जो इसे नहीं मानते हैं…
वो सारे चले जाते है अन्दर…!
अरे वाह,तू तो हो गया है बडा ज्ञानी बे…
सब आपकी संगत का असर है सरकार…!
तो क्या संगत का इतना ज्यादा असर हो जाता है…?
हां हुजूर,एक सडी हुई चीज़ से सब कुछ सड जाता है…!
ये बात तो आदमियों में लागू होती होगी ना बे…?
आदमी पर सबसे ज्यादा असर होता है इन सबका सरकार…!
मतलब किसी के किसी भी सामुहिक कार्य की जवाबदेही…
सिर्फ़ व सिर्फ़ उसके मुखिया की होती है सरकार…!!
मगर आदमी ये बात क्यों नहीं समझता बे बन्दर…?
सरकार,आदमी असल में सबसे बडा है लम्पट…
आदमी है सबसे बडा बेइमान और मक्कार…सरकार…!
और सब तरह के भ्रष्ट लोगों का मुखिया भी…
उसपर अंगुली उठाने पर कहता है खबरदार…!!
तो हुजूर…मेहरबान…कद्रदान…पहलवान…मेहमान…भाई-जान 
ऐसा है हमारा यह बन्दर…
जो कभी-कभी घुस जाता मेरे भी अन्दर....!!
मगर हां हुजूर,जाते-जाते एक बात अवश्य सुनते जाईए…
यह बन्दर…हम सबके है अन्दर…
जो बुराईयों को पहचानता है,सच्चाई को जानता है…!
मगर ना जाने क्यों इन सबसे वो आंखे मूंदे रहता है…!
अपनी आत्मा को बाहर फ़ेंककर किस तरह वो रहता है…?
और अपनी पूरी निर्लज्जता के साथ हंसता-खिखियाता हुआ…
कहीं अपने घर का मुखिया…कहीं किसी शहर का मेयर…
कहीं किसी राज्य का मुखिया…कहीं किसी देश का राजा…
इन बन्दर-विहीन लोगों ने देश का बजा दिया है बाजा…!!!! 

Friday, January 14, 2011

ऐ औरत !!अब तुझे रूपम पाठक ही बनना होगा....!!


ऐ  औरत !!अब तुझे रूपम पाठक ही बनना होगा.....
ऐ औरत !!अब अगर तूझे सचमुच एक औरत ही होना है 
तो अब तू किसी भी व्यभिचारी का साथ मत दे....
जैसा कि तेरी आदत है बरसों से 
घर में या बाहर भी......
कि हर जगह तू सी लेती है अपना मुहं 
घर में किसी अपने को बचाने के लिए.....
और बाहर अपनी अस्मत का खिलवाड़.....
इस सबको झेलने से बेहतर तू समझती है....
सबसे ज्यादा अच्छा अपना मुहं सी लेना....

और तेरे मुहं सी लेने की कीमत क्या है,तू जानती है...??
 तेरी ही कोख से जने हुए ये बच्चे...बूढ़े...और जवान....
सब-के-सब तुझ पर चढ़ बैठना चाहते हैं....
ये उद्दंड तो इतने हो गए हैं तेरी चुप्पी से....
कि इन्हें कुछ नज़र ही नहीं तुझमें,तेरी कोख के सिवा 
......तो अब तू सोच ना....कि तेरे पास अब चारा ही क्या है...
......आ मैं बताता हूँ तुझे....लेकिन मैं क्या बताऊँ 
......अब तो सबको रूपम ने बता ही दिया है.......
.......उठा ले हाथों में कटार....या फिर कुछ और....
.......बेशक ये रास्ता मुश्किल से बहुत है भरा......
.......मगर कुछ ही दिन करना होगा यह तुझे...
.......उसके बाद देख लेना.............
......कि तेरी तरफ उठने वाला हर नापाक कदम 

......तेरा क्रोध भरा चेहरा देखकर....
.......वापस लौट जाएगा....अगले ही दम....!!
......ऐ औरत तू ज़रा सी देर के लिए बना ले....
.....खुद को दुर्गा का कोई भी अवतार.....
.....जो आज बनी है रूपम सी कोई....
......अपने बच्चों को बता अपने रौद्र रूप के मायने 
......और आदमी रुपी जानवर की वीभत्सता का क्रूर सच...
......तेरे भीतर की दुर्गा अगर तुझमें ज़रा सी भी अवतरित हो जाए...
......तो हर वहशी इंसान को अपनी औकात पता चल जाए...!!