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Wednesday, December 8, 2010

तो फिर मत आईये ना राष्ट्रपति जी यहाँ......!!!
             क्या आपको यह पता भी है ओ राष्ट्रपति जी कि आप जहां आने वाले हो ,वहां आपके आने की ख़ुशी में हज़ारों पेड़ सड़क से काट डाले गए हैं ?क्या पेड़ में आपके दुश्मन छुपे हुए होंगे ,जो आपका इंतज़ार कर रहे होंओं,कि कब आप आओ और वो आपका काम तमाम कर डालें ? 
            क्या आपको यह पता भी है ओ राष्ट्रपति जी कि आप जहां आने वाले हो ,वहां आपकी सुरक्षा के लिए जो एहतियात किये जा रहे हैं,जो रिहर्सल की जा रही है ,उससे स्कूल के बच्चों के बसें सड़क पर घंटे-घंटे भर के लिए ठहर जा रही हैं और उनमें बैठे बच्चे भूख से तड़प रहे हैं और उनके माँ-बाप बस-स्टोपेज पर हैरान-परेशान घूम रहें हैं ??
            क्या आपको यह पता भी है ओ राष्ट्रपति जी कि आप जहां आने वाले हो ,वहां का जन-जीवन आपकी सुरक्षा के लिए असामान्य बना दिया गया है ,वह तो तब है जबकि आप आये भी नहीं हो ,जिस दिन आप आओगे,उस दिन एयर-पोर्ट से राजभवन तक और फिर राजभवन से रांची-यूनिवर्सिटी तक चक्का-जाम जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाने वाली है....इसके अलावा आम लोगों पर पुलिस का जलवा तारी होगा सो अलग....!!
                 अगर आपके आने का यही मतलब है ओ राष्ट्रपति जी ,तो फिर मेरे शहर के बच्चे ,उनके अभिभावक,आम आदमी और खुद मेरी आपसे यह विनम्र अपील है कि आप ना ही आओ तो अच्छा है !!क्यूंकि राष्ट्र के नेता  राष्ट्र और उसकी जनता की हिफाजत के लिए होते हैं ,जिन्हें जनता ने अपनी सेवा के लिए और राष्ट्र को संप्रभु बनाए रखने के लिए तैनात किया होता है और अगर राष्ट्र के वे नेता अपने ही राष्ट्र में इतने ही असुरक्षित हैं तो फिर अपने महलों में ही महदूद क्यूँ ना रहें...क्यों बाहर निकल कर अपने लिए असुरक्षा और जनता के लिए सर-दर्द मोल लेते हैं....आमीन....!!

रोइए जार-जार क्या....कीजिये हाय-हाय क्यूँ !!!


                      रोइए जार-जार क्या....कीजिये हाय-हाय क्यूँ !!
बड़ा शोर सुन रहा हूँ इन दिनों स्पेक्ट्रम वगैरह-वगैरह का.....मन ही नहीं करता कि कुछ लिखूं....हमारा लिखना कुछ यूँ है कि हमारे जैसे ना जाने लिखते-चीखते-चिल्लाते रह जाते हैं....और घोटाले करने वाले घोटाले कर-कर के नहीं अघाते हैं....बड़े-बड़े अफसर फाईलों पर अपनी चेतावनी की कलम चलाते हैं....मगर किसी साले का कुछ नहीं बिगाड़ पाते हैं....कोई अफसर अंगुली उठाता है तो अपने महकमे से बाहर कर दिया जाता है....और तो और कोई प्रधानमन्त्री नाम का कोई शख्स भी जवाब माँगता है तो उलटे हाथ खरी-खोटी सुनकर हाथ मलता रहा जाता जाता है....आप देखिये कितना विकेंद्रीकृत हो गया सब कुछ.....जब पी.एम.नुमा जीव भी किसी अदने से मंत्री की फटकार सुनकर चुप रह जाता है.....और बरसों अपनी जीभ सीए रहता है कुछ इस तरह....जैसे कि मूंह में जुबां ही ना हो....और फिर एक दिन जुबां खोलता भी है तो इस तरह....जैसे कोई भीगी बिल्ली हो.....दोस्तों प्रधानमन्त्री नाम के इस शब्द का पराभव हो चुका है भारत के इस शासन काल में....इतना विगलित हो जाने से अच्छा किसी भी प्रधानमन्त्री के लिए आत्महत्या कर लेना होता....मगर इस प्रकार की हरकतें करके उन्होंने ना सिर्फ इस पद का बल्कि अपनी खुद की निजी इज्जत का,समूचे देश के सम्मान का.....और देश की समूची जनता के सर को शर्म से नीचा कर दिया है.....जनता कुछ समय बाद सब कुछ भूलभाल कर बेशक उन्हें  कभी माफ़ भी कर दे....मगर इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा....!!
                    दोस्तों कभी-कभी आप निजी तौर पर गद्दार नहीं होते हुए भी गद्दार से भी ज्यादा हो जाते हैं...और इस गद्दारी को भले ही परिभाषित नहीं किया जा सके मगर....मगर इस कालिमा के छींटे हमेशा-हमेशा के लिए आपके दामन पर छा जाते हैं....आप बेशक खुद को सबूतों के अभाव में निष्कलंक बताते रहें....मगर मुर्ख से मुर्ख जनता भी जानती है कि दरअसल हो क्या रहा है....और जो हो रहा है....उससे जनता की आँखे भले ही कुछ देर से खुल रही हैं....मगर जब पूरी तरह खुल जायेंगी तो वह सबको दौड़ा-दौड़ा कर मारेगी.....बेईमानों को भी और इमानदारी का नकाब पहने हुए गद्दारों को भी....और यह सच होकर ही रहेगा....!!!!

Sunday, December 5, 2010

 आखिर किसको बदलना चाहते हैं आप ?? 
                   अभी-अभी एक मित्र के घर से चला आ रहा हूँ,अवसर था उसके दादाजी की मृत्यु पर घर पर बैठकी का...और इस संवेदनशील अवसर पर उस मित्र से जो कहा गया,उस पर सोच-सोच कर अचंभित-व्यथित और क्रोधित हुआ जा रहा हूँ,मेरे उस मित्र ने प्रेम विवाह किया है,जिसे उसके घर वालों ने कभी मन से स्वीकार नहीं किया,हालांकि मित्र अपनी पत्नी सहित अपने परिवार के घर यानी कि अपने ही घर में रहता है,मगर पत्नी के घरवालों को इस घर द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया गया है और अब जब मित्र के दादाजी की मृत्यु हुई है और उसके ससुराल वाले बैठकी पर उपस्थित हुए तो उनके चले जाने के बाद मित्र के घरवालों द्वारा मित्र को यह कहा गया कि अपने ससुरालवालों से यह कह दे कि आज भर आ गए सो आ गए मगर अब टीके-पगड़ी की रस्म के वक्त वो टीका लेकर ना उपस्थित हों जाएँ.....और तब से मेरा मन बड़ा विचलित है.....कारण कि इतनी तेजी से बदलती दुनिया में आज भी एक अदना सा इंसान किसी दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझता...तरह- तरह के अभिमानों से भरा यह इंसान अपने तरह-तरह के गुट बनाए हुए अपने उस गुट में पूरी तरह रमा हुआ अपनी उस दुनिया में पूरी तरह डूबा हुआ रहता है...और उससे इत्तर दुनिया से उसे कोई मतलब नहीं होता और तो और वह किसी और की कोई परवाह तक नहीं करता....अपने अभिमान,अपनी ठसक,अपना पैसा और अपना समाज बस यहीं तक उसे सब कुछ ठीक लगता है और इसके पार सब कुछ एक मजाक...बल्कि हीन....बल्कि कुरूप....बल्कि घृणा से भरा हुआ.....बल्कि उस पर थूक देने लायक.....यहाँ दूसरे को सम्मान देना तो दूर एक मिनिमम कटसी भी मेंटेन नहीं रखी जा सकती.....और हम हमेशा समाज को बदलने की बात करते हैं....!!
                          आखिर किस समाज को बदलना चाहते हैं हम और आप....यहाँ जहां तरह-तरह की घृणा और वैमनस्य भरा हुआ है....हम हमेशा राजनैतिक भ्रष्टाचार को गालियाँ दिया करते हैं...,मगर हम अपने खुद के बीच जो तरह-तरह की सामाजिक विसंगतियां....अंधविश्वास...अविश्वास....वहम.....गलतफहमियाँ और पता नहीं किन-किन बेवजह की बातों पर किन-किन से बेवजह घृणा का एक अंतहीन सैलाब अपने-अपने मन में ना सिर्फ पाले बैठे हैं....बल्कि उसे दिन पर दिन पाल-पोष कर और भी बढाए चले जाते हैं,उसका क्या ??किसी दूसरे की बात तो क्या करें हम... अपने किसी गरीब या कमतर-कमजोर या कम बुद्धि वाले किसी रिश्तेदार के साथ कैसा सुलूक होता है हमारा...क्या हम उसके साथ दो भात का व्यवहार नहीं करते....क्या उसके साथ का देन-लेन उसकी हैसियत देखकर नहीं करते....क्या उसका माथा देखकर उसे तिलक नहीं करते....अपने इस आचरण को हम भला कब देख पाते हैं....क्या जिन्दगी भर हम अपना खुद का यह चरित्रहीन आचरण देख भी पाते हैं....??उसे सुधारना तो बहुत दूर की बात है......!!!
                         दोस्तों हो सकता है कि हमने अपने समूचे जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं चाहा हो....और ना ही अपने जानते किसी का बुरा किया भी हो....और यहाँ तक कि हम मुक्त हस्त से दान भी देते आयें हों...और किसी की गरीबी पर हमारी आँख भी भर आयीं हों....और हमने बेशक तब उसके भले के लिए बहुत कुछ किया हो.....यानी कि समूचे जीवन हमने अच्छा-ही-अच्छा काम किया हो,जिससे हमें सदा बडाई-ही-बडाई ही मिली हों.....और यहाँ तक कि हमने सदा साधू-संतों का सत्संग ही किया हो.....मगर अपने ही परिवार में किसी-ना-किसी प्रकार की गलतफहमियाँ पाल कर किसी अपने ही खून के साथ,या किसी भी अन्य के साथ  कोई अन्याय नहीं किया....??....कभी शांतचित्त से सोचकर देखें दोस्तों तो हम पायेंगे कि हाँ हमने ऐसा किया है....और दोस्तों सच बताऊँ....हमारे सब अच्छा कर्म करने के बावजूद हो सकता है.....कि हमारे सारे पुण्य हमारे द्वारा किये गए इन अनजाने पापों द्वारा कट गए हों....अगर अगर हम कभी भी एक बार भी इस तरह से सोच पायें....तो हो सकता है कि कि हम अपने कुछ पापों को त्याग पायें....वरना किसी को गालियाँ देना उतना ही बेकार है....जितना कि किसी भैंस के आगे बीन बजाना.....और सच बताऊँ  तो ऐसा कोई कर्म या व्यवहार करने के बाद हम किसी भी समाज,सत्ता,राजनीति या किसी को गालियाँ बकने के हकदार भी नहीं रह जाते....बाकी हमारी मर्जी है,हम चाहे जो करें....हम रसूखवाले लोगों को टोकने वाला भला है ही कौन....सिवाय हमारी आत्मा के....अगर हम उस आत्मा की किसी भी किस्म की आवाज़ को सुनने में सक्षम नहीं....तो मैं आपसे....हम सबसे यही पूछ कर अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा कि आखिर किसको बदलना चाहते हैं.....हम....और आप.....!!!!!    

Thursday, October 21, 2010

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

   इन दिनों तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार ही भारत के एक महाशक्ति बनने के कयास लगाये जाते हैं,महाशक्ति बन चुके और महाशक्तिमान अमेरिका को चुनौती देते चीन से उसकी तुलना भी की जाती है,मगर भारत की इस महत्वकांक्षा में सबसे बडा रोडा भारत खुद ही है और अगर यह देश अपनी कतिपय किन्तु महत्वपूर्ण खामियों को दूर करने का प्रयास नहीं करेगा तो महाशक्ति बनना तो दूर उसके धूल में मिल जाने की गुंजाईश ही ज्यादा लगती है !!आज हम इन खामियों का विश्लेषन ना भी करते हुए सिर्फ़ उन्हें चिन्हित करने का प्रयास भर करें तो भारत के महाशक्ति बनने की राह में कौन सी बाधाएं हैं,उन्हें जानकर दूर करने का प्रयास किया जा सकता है,मज़ा यह कि ये कमजोरियां इतनी खुल्लमखुल्ला हैं कि उन्हें आंख मूंदकर भी जाना जा सकता है,बशर्ते कि हम अपने भीतर ईमानदारी से झांकने को तैयार हों !!  
                पहला,भारत के राजनेताओं में देश के प्रति ममत्व का अभाव तथा दूरदर्शिता की कमी--विगत कई बरसों से यह देखा जा रहा है, तरह-तरह की खिचडी सरकारों ने अपने असुरक्षा-बोध के कारण देश के खजाने को निर्ममतापुर्वक तथा निहायत ही बेशर्मीपुर्वक ऐसा लूटा है,जिसकी की कहीं और कोई मिसाल ही नहीं मिलती तथा अपने इसी असुरक्षाबोध के कारण उन्होने अपने शासन के दौरान धन कमाने(कमाने नहीं बल्कि लूट्पाट करने)के बाद बचे-खुचे समय में भी बजाय शासन करने के एक-दूसरे की टांग-खिंचाई ही की है,सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध...निन्दा के निन्दा ही जैसे उनका एकमात्र मकसद रह गया प्रतीत होता है.ऐसे में देश के लगभग सभी राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था प्रायश: चुल्हे में जा गिरी है,और आर्थिक व्यवस्था पर तो जैसे घून ही लगा जा रहा है,हर कोई बस अपना-अपना हिस्सा बांटने के लिए सत्ता में भागीदार बन रहा है और इसीलिए हर कोई हर किसी को अपना हिस्सा खाने में मददगार बनकर अपना हिस्सा सुरक्षित करने भर में आत्मरत है,तो फिर ऐसे देश,जिसकी सभी व्यवस्थाओं का जहां उपरवाला ही मालिक है,के महाशक्ति बनने की कामना या स्वप्न एक हंसी-ठठ्ठे से ज्यादा और कुछ नहीं लगता....!!
                दूसरा ,भारत के व्यापारी वर्ग की भयंकर आत्मरति भरी बनियावृत्ति --भारत का व्यापारी वर्ग,चाहे वो किसी भी जात-वर्ग या धर्म-विशेष का ही क्यों ना हो,उसकी वृत्ति आज भी प्राचीन काल की तरह आत्मलीन-आत्मरत और स्वार्थ से ओत-प्रोत रहते हुए अपने हितों की रक्षा करने हेतु शासक-वर्ग की चिरौरी करना और उसके तलवे चाटना भर है.इस स्थिति में आज इतना फ़र्क अवश्य आ गया है कि इस ग्लोबल युग में बडे-बडे उद्योगपति सत्ता की वैसी चिरौरी नहीं करते,बल्कि सरकारों को अपने राज्य और देश के विकास के लिए उन उद्योगपतियों की राह में आगे चलकर फूल बिछाने पडते हैं,मगर इससे इस स्थिति में अलबत्ता कोई फ़र्क आ गया हो,नहीं दिखाई देता...क्योंकि आज के दौर में सत्ता और बडे व्यापारी और उद्योगपति एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं,दोनों ही एक-दूसरे का खूब दोहन करते हैं और इसका परिणाम कभी नंदी-ग्राम,सिंगूर तो कभी उडीसा-झारखंड के विभिन्न हिस्सों में पैदा हुई हिंसा के रूप में दिखाई देता है,इसका अर्थ यह भी है कि भारत का सत्ता-तंत्र भारत के विकास में यहां के आम लोगों को विश्वास में लेने का हिमायती नहीं है और यदि ऐसा है तो भी आने वाले दिनों में तरह-तरह के विरोध के स्वर की अनुगूंज और हिंसा का वातावरण दिख पडने वाला है,जिसके मूल में होगा इन्हीं बनिया लोगों का क्षूद्र स्वार्थ और लालच,जिसे देश के विकास का जामा पहना कर आम जनता का हक छीनते जा रहे हैं ये कतिपय लोग !!
                 तीसरा,विकास की किसी समुचित अवधारणा का नितान्त अभाव-- भारत के विकास में किसी भी भारतीय में विकास का कोई खाका,कोई मानचित्र,कोई रास्ता,कोई सोच या किसी भी किस्म की समुचित अवधारणा का सर्वथा अभाव है.या यूं कहूं कि भारत कैसा हो ,ऐसा कोई सपना भारत के किसी नागरिक के मन में पलता हो,ऐसा दिखाई नहीं देता,या कम-से-कम इसके जिम्मेवार नेताओं में तो बिल्कुल भी नहीं,और मिलाजुला कर कोई एक खाका खींच पाने को कोई व्यक्ति,समूह तत्पर हो,ऐसा भी देखने में नहीं आता !बस विकास-विकास का रट्टा चल रहा है हमारे चारों तरफ़,कि इसको बुला लो,उसको बुला लो...लेकिन यह तय नहीं है कि कैसे,कितना कितने समय में और क्या करना करना है,यह कोई नहीं जानता कि कितने प्रतिशत खेती करनी है,उस खेती के लिए उसके साधनों का क्या-कितना-कैसा विकास करना है और विकास की इस अवधारणा के चलते जो अहम चीज़ पीछे छूट जाती है वो यह है कि इसका कोई अनुमान,आकलन या सरसरी तौर पर लिया गया कोई आंकडा तक नहीं है कि जिस विकास के लिए उपजाऊ खेतों को यानि कि किसानों की रोजी-रोटी के एकमात्र साधन यानि कि [अभी के आकलन के अनुसार "सेज" की खातिर (प्रस्तावित जमीन)ली जाने वाली याकि छीनी जाने वाली जमीन के ऊपर प्रतिवर्ष दस लाख टन अनाज उपजाया जाता है !!]को छीनकर उसके बदले किए जाने वाले विकास का क्या मूल्य है,क्या गुणवत्ता है,क्या आयु है और क्या पर्यावरणीय नुकसान या फ़ायदे हैं,उनसे किनको और किस हद तक फ़ायदा है तथा देश के लिए,इसकी सामाजिक,आर्थिक और पारम्परिक स्थितियों के मद्देनज़र कौन-सा विकास सचमुच ही फ़ायदेमन्द है !!
                  चौथा,इस अदूरदर्शिता के कारण घट सकने वाले संकट को देख पाने में असमर्थता-- अपनी इस अदूरदर्शिता की वजह से पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज़ पर बुलाए और निमंत्रित किए जाने वाले लोगों की बन आयी है और आने वाले लोगों की बांछे सरकारों की ऐसी तत्परता देख कर वैसे ही खिल-खिल जाती है,और वो काम को अमली जामा तो बाद में पहनाएं या कि पहनाएं कि ना पहनाएं,मगर तरह की शर्तें और डिमांड पहले धर देते हैं कि पहले ये दे दो-वो दे दो,ये फ़्री करो-वो फ़्री करो,इतनी जमीन चाहिए,इतनी बिजली,इतना पानी इतने सस्ते मज़दूर,इतनी दूर या पास और इस तरह का बाज़ार और "सेल" की गारंटी यानि इतनी सरकारी खरीदी की गारंटी....वल्लाह क्या बात है...सुभानल्लाह क्या बात है और ले देकर वही बात कि ये खान दे दो,वो खान दे दो...फ़ैक्टरी के नाम और स्थानीय लोगों को रोजगार देने के नाम पर ली गयी तमाम रियायतों के बावजूद होता ठीक इसका उलटा ही है,यानि कि कानून को धत्ता बताना,नियमों की धज्जी उडाना,कायदे-कानूनों को ताक पर धर देना...स्थानीय लोगों को रोजगार तो क्या,कभी फ़ैक्टरी के दर्शन तक नसीब नहीं हो पाते गांव-वालों को...क्योंकि यह सब सुगमतापूर्वक शायद भारत में ही संभव है !!
                  पांचवा,आम भारतीय जन की काहिली और गप्पबाजी की खतरनाक आदत-- यह एक मुद्दा हमें कोसों पीछे ढकेल सकता है अगर इसके प्रति हम सचेत नहीं हुए,कि हम आम भारतीय भौगोलिक कारणों से या फिर अपनी जन्मजात काहिली की आदत के कारण ऐसे ही आम-तौर पर काफ़ी पीछे धकेले दे रहे हैं और मज़ा यह कि हमारी यह आदत हमें तो क्या किसी को हमारी बूरी आदत के रूप में दिखाई नहीं देती !!भारतीयों की इस बुराई(या खूबी??)के चलते भारत को गपोडियों का देश भी कहा जा सकता है,वो भी ऐसा कि यहां का एक सडक छाप आदमी भी दुनिया के प्रत्येक विषय में गहन रूप से पारंगत प्रतीत होता है,जो शायद अन्यत्र दुर्लभ ही है,आम भारतीय की प्रवृत्ति उन्हें दरअसल मसखरा बना देती है,मगर शायद हमें इन मामूली बातों से कोई फ़र्क पड्ता हो ऐसा देखने को नहीं मिलता,मगर सच तो यह है कि काम के दौरान की जाने वाली व्यर्थ की बातों के कारण किस प्रकार मिनटों का काम घंटों में परिणत हो जाता है,इसे देखने का होश शायद अब तक किसी को नहीं है या फिर ये भी संभव हो कि इसे समस्या के रूप में देखा ही ना जाता हो,क्योंकि काम के प्रति सबका रवैया एक-सा ही है इसलिए सबकी कार्यशैली तकरीबन यही बन चुकी है,किन्तु गप्पबाजी की यह आदत कब कामचोरी में बद्ल जाती है इसका अहसास भी आम भारतीयों को नहीं है,इसीलिए किसी भी काम में लेट-लतीफ़ी समस्त भारतीयों की पेटेंट फ़ितरत है और इस फ़ितरत के रहते हुए महाशक्ति तो क्या क्षेत्रीय शक्ति बनने के आसार भी नज़र नहीं आते !!
         छ्ठा,विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव--विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव साथ भारत के पारम्परिक ज्ञान के साथ भारत के वैज्ञानिकों का दुराव-- किसी भी देश की प्रगति में समय के साथ कदम-ताल मिला कर चलने की प्रवृत्ति के साथ ही अपनी परम्परा से आयी हुई खास आदतों और विशेषताओं को सहेज कर रखना भी विकास की ही एक कसौटी मानी जाती है जबकि भारत के सन्दर्भ में इसका ठीक उल्टा ही होता प्रतीत होता है कि जहां यहां के लोगों में किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक चेतना का अभाव है बल्कि यहां के  वैज्ञानिकों में भी भारत के बहुमुल्य पारम्परिक ज्ञान के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं है और मिलाजुला कर इन दोनों पक्षों की अज्ञान-पूर्ण सोच के कारण आम लोगों में  विज्ञान का प्रसार तथा खास लोगों में पारम्परिक चेतना का प्रसार होता नहीं दिख पड्ता और इस स्थिति के रहते भी सामंजस्य पूर्ण विकास कतई सम्भव होता नहीं दिखता,क्योंकि इस तरह से कोई कार्य अपने जमीनी रूपों में साकार होता नहीं दिख पड्ता,सोच की यह विषमता दोनों पक्षों में एक किस्म का दावानल ही है !!
         कुल मिलाकर हम यह पाते हैं कि-- सच में ही भारत की तरक्की की राह में खुद भारत ही यानि कि भारतीय ही सबसे बडी बाधा हैं और सवाल यह है कि क्या हम भारतीय अपनी इन कमियों को स्वीकारने को तैयार हैं?देश जैसी एक भावूक चेतना का पोषन करने के लिए अपनी निजता का हनन करना होता है,अपने स्वार्थों को परे धरना पड्ता है,खून और पसीना बहाकर दिन-रात एक करना होता है!!सवाल यह कि क्या हम भारतीयों में भारत के प्रति कोई आमूल सोच,कोई विजन,कोई सपना है!मगर उससे भी बडा प्रश्न तो यह है कि भारत के रहनुमाओं के पास भारत के लिए कोई दिशा है?कोई अध्ययन,कोई रोशनी है कि थोडी सी दूर तक भी भारत उस रोशनी में अपने पांव बढा सके!!इनके मन में ऐसा कोई सपना भी है,जिसे तिरसठ साल पहले इसे आज़ाद कराने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों ने बोया था तथा कुछ  ने तो बडी सीधी सी राह भी दिखाई थी!! दरअसल सपने ही वो रोशनी होते हैं,जिसकी आंच में तपकर आदमी निखरता है और जिसके प्रकाश में विकास,या तरक्की जो जो कहिए,के भीने-भीने और सुगन्ध भरे फूल खिलते हैं,और भारत के मामले में भी यह सच निस्सन्देह ही उलट तो नहीं हो सकता !! 

Thursday, October 7, 2010





आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
            समुचे देशवासियों की और से आपको राम-राम (साम्प्रदायिक राम-राम नहीं बाबा !!)
                आदरणीय पी.एम. जी,अभी कुछ दिनों पहले आपका बयान देखा था अखबारों में लाखों-लाख किलो अनाज के सडने पर अदालतों द्वारा उसे गरीबों को मुफ़्त मुहैया कराये जाने के आदेश पर,जिसे पहले आपके परम आदरणीय मंत्रियों ने सलाह बतायी और फिर अन्य गोल-मोल बातें बताने लगे,आपने भी अदालतों को सरकार के नीतिगत मामलों में नसीहत ना देने की नसीहत दे डाली !लेकिन ऐसा कहते वक्त आपने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि अदालतों को क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो वह आये दिन बार-बार ऐसे मामलों पर आदेश या राय देती है जो असल में सरकारों को करना चाहिए,मगर दुर्भाग्यवश वो करती ही नहीं...अभी अभी मैनें एक जज को यह शेर कहते हुए सुना कि"उलझने अपने दिल की सुलझा लेंगे हम.....आप अपनी ज़ुल्फ़ को सुलझाईए...!!तब मेरा भी कुछ कहने को जी चाहने लगा और मैं आपको यह पत्र लिखने बैठ गया !!
                           "वो नहीं सुनते हमारी,क्या करें....मांगते हैं हम दुआ जिनके लिए....चाहने वालों से गर मतलब नहीं....आप फिर पैदा हुए किनके लिए" ये दोनों शेर मेरे लिए ऐसे हैं जैसे वोट देते हैं हम सभी जिनके लिए......और अपनी ही जनता से गर मतलब नहीं...आप फिर पैदा हुए......तो आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी.....बात-बात में अदालतों के कोप से क्रोधित होने के बजाय आप सब अपनी बात-बात को,हर बात को अदालत में घसीटने के बजाय आपस में क्यूं नहीं सलटा लिया करते हो...ओटो वाले के भाडा बढाने की बात हो,बच्चों के नर्सरी में एडमिशन का सवाल हो,जन सामान्य की सुविधा के बस खरीदने का प्रश्न हो,ट्रैफ़िक व्यवस्था सुधारने का प्रश्न हो,फ़ुटपाथ दुकानदारों के हटाने का सवाल हो या उन्हें पुन: बसाने का प्रश्न,किसी कारखाने या किसी भी सरकारी योजना के कारण अपनी जगह से हटने वाले लोगों के पुनर्वास का प्रश्न हो या कि किसी भगवान आदि के जन्म-स्थल को तय करने जैसे एकदम से जटिल और किसी भी तरह की अदालत से बिल्कुल अलग रहकर या अदालतों को किसी भी हालत में उन मामलों में ना घसीट कर आपस में ही सर्वमान्य सहमति कायम करने के मामले हों.....हुज़ुरे-आला जरा जनता को यह बताने की कष्ट करेंगे कि इन मामलों में किसी भी किस्म का फैसला किसे करना चाहिये...??और अगर वो फैसले उन फैसलों को करने वाली अधिनायक ताकत नहीं कर पाती है तो क्यों...??तो फिर उस ताकत यानि उस सत्ता में बने रहने का हक क्यों है,उसने किस काम के लिए चुनाव जैसी चीज़ में येन-केन-प्रकारेण जीत पाकर कौन सा काम करने के लिए सत्ता में जाने का जिम्मा लिया है...??अपने किसी भी तरह के फैसले को जनता के बीच लागू करवाने की नैतिक ताकत इस सत्ता में क्यों नहीं है और इसके लिए उसे बारम्बार पुलिस और सैनिकों की आवश्यकता क्यों है...??अपनी हर बात को किसी सैनिक-शासक की तरह जबरिया लागू कराने की विवशता क्यों है...??...और अन्त में यह कि तरह-तरह की तमाम बातों को अदालतों में घसीट कर ले ही गया कौन है....किसी भी मुद्दे पर अपने द्वारा लिए जाने वाले फैसलों को अदालतों पर टाला किसने है....??
                  आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी अभी कुछ दिनों बाद ही दशहरा है,और आपको पता है कि ये अदालतें आपकी तमाम सरकारों को क्या आदेश या सलाह देने वाली हैं....वो कहने वाली हैं कि सडकों पर फ़ैले कचरे को उठाओ....बजबजाती नालियों को साफ़ करो भैईया...क्योंकि दशहरा और दुर्गा-पूजा देखने जाने वालों को कोई कष्ट ना हो....और फिर उसके कुछ दिनों बाद ही दीवाली और छठ आएगी और एक बार फिर ये अदालतें एक बार फिर उन्हीं लोगों को वही नसीहत देंगी और यह भी कहेंगी कि भैईया लोगों अब जरा तमाम नदी-तालाब-घाटों को भी साफ़ कराओ....तब प्रशासन की नींद खुलेगी और वो अचानक हरकत में आएगा....तो अदालतों के साथ-साथ मेरा और तमाम देशवासियों का भी आप सबसे यही सवाल है कि आप सब वहां क्यों हैं अगर आपको हर प्रशासनिक कार्य करवाने के लिए गहरी नींद से जगाना पडे...हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए जनता को आंदोलन ही करना पडे...यहां तक कि आप ही के यहां काम करने वाले अपने वेतन या पेंशन के लिए अदालत तक जाना पड जाए...यहां तक कि आप किसी शिक्षक को पच्चीस-पच्चीस बरस तक वेतन ही ना दो....उसका लाखों-लाख रुपया आपके पास बकाया हो और उसके बाल-बच्चे भूखे मरें....और तो और....जो काम आप सब करो उसमें भी बस ही अपना वारा-न्यारा कर डालो.....जनता के लिए किए जाने वाले कार्य में जनता का धन खुद ही डकार जाओ....और जनता को खबर भी ना हो....यही नहीं भूखी मरती हुई जनता के लिए भेजी गयी सहायता राशि की बंदरबांट कर लो...और जनता कलपती हुई मर जाए....धरती के उपर के और नीचे के तमाम कच्चे या पक्के माल या साधनों की बंदरबांट कर लो....और वहां रहने वाले गरीबों को हमेशा के लिए बेदखल कर दो.....वो जीये चाहे मरें....तुम्हारी बला से.....क्योंकि तुम विकास चाहते हो....क्योंकि उस विकास में ही दरअसल तुम सबका "विकास" है !!??
                         आदरणीय श्री पी.एम.जी आप आज की तारीख में सबसे ईमानदार पी.एम कहे जाते हो......किन्तु सरकार मुझे इस बात से तनिक भी इत्तेफ़ाक नहीं है...क्योंकि अगर आपकी  नाक के एन नीचे यह सब चलता होओ....आपके अगल-बगल के समस्त मंत्रीगण बिना किसी लाभकारी व्यापार या व्यवसाय के करोडपति हों,अरबपति हों....और आपकी भुमिका उसमें कतई नहीं...ऐसा कोई पागल भी नहीं मान सकता....और तो और आपके खुद के कार्यकाल में लगातार यही सब हो रहा होओ,जो पिछ्ले साठ-बासठ बरसों से होता आया है....तो मुझे आप यह तो बताओ कि क्यों नहीं इस सबमें आपकी भुमिका को संदिग्ध माना जाये.....यह तो एक अल्बत्त मज़ाक है कि एक ऐसी सरकार,जिसके सब लोग धन के समन्दर में गोते-पर-गोते खाये जा रहे हों,उसका मुखिया किनारे खडा होकर यह कह रहा होओ....कि हम तो बिल्कुल नहीं भीगे जी....हमें तो छींटे पडे ही नहीं.....पता आपको इस किस्म की बेहुदी बातें कौन लोग करते हैं.....भांड लोग...भांड....!! लेकिन यह भी बडा मज़ाक है कि यह बातें मैं किससे कर रहा हुं....उससे, जो किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता से तो नहीं ही...जिसने अपने सब कार्य-कलापों का चिट्ठा सिर्फ़ एक उस व्यक्ति को देना है,वो खुद भी किसी महत्वपूर्ण सरकारी पद पर नहीं बैठा हुआ होने की वजह से किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता के प्रति तो नहीं ही...बेशक वो ना केवल पी.एम. पद को अपितु सभी मंत्रालयों को अपनी मर्ज़ी के अनुसार चलाता होओ...अरे-रे-रे ऐसा मैं नहीं कहता...बल्कि सब कहते हैं और मैं सुनता हूं..और ऐसा मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती कि शायद ऐसा हो भी...जो तकरीबन दिखाई भी देता है...जो शायद गलत नहीं भी है....तो यह भी एक मज़ाक ही है देश के प्रति कि देश को चलाने वाला प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति है जो संसद या देश के प्रति जवाबदेह ना होकर अपनी पार्टी के प्रति जवाबदेह है....और उसकी पार्टी को चलाने वाला मुखिया चुकिं सरकारी ओहदे पर नहीं है,इसलिए वो भी संसद और देश के प्रति अपनी जवाबदेही से च्यूत है.....अगर ऐसा ही है सरकार....तो हम सब भी पागल ही तो हैं...जो जगह-जगह शोर मचाते हैं....हज़ारों पन्ने काले करते हैं....और तमाम मंत्रियों की खुदगर्ज़ जिन्दगी में दखल देने की गैरजिम्मेदाराना हिमाकत करते हैं....अगर देश के तमाम लोग भी ऐसे ही हैं...मैं खुद भी ऐसा ही हूं....तो यह सब बातें तो विधवा का विलाप ही हैं....सो इस विलाप के लिए मुझे माफ़ करें....इस बात-बहस के लिए मुझे माफ़ करें...सरकार सच कह रहा हूं,मुझे माफ़ करें !!
-- http://baatpuraanihai.blogspot.com/

Monday, September 27, 2010

                    ज़माना बेशक आज बहुत आगे बढ़ चूका होओ,मगर स्त्रियों के बारे में पुरुषों के द्वारा कुछ जुमले आज भी बेहद प्रचलित हैं,जिनमें से एक है स्त्रियों की बुद्धि उसके घुटने में होना...क्या तुम्हारी बुद्धि घुटने में है ऐसी बातें आज भी हम आये दिन,बल्कि रोज ही सुनते हैं....और स्त्रियाँ भी इसे सुनती हुई ऐसी "जुमला-प्रूफ"हो गयीं हैं कि उन्हें जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता इस जुमले से...मगर जैसा कि मैं रो देखता हूँ कि स्त्री की सुन्दरता मात्र देखकर उसकी संगत चाहने वाले,उससे प्रेम करने वाले,छोटी-छोटी बच्चियों से मात्र सुन्दरता के आधार पर ब्याह रचाने वाले पुरुषों...और ख़ास कर सुन्दर स्त्रियों, बच्चियों को दूर-दूर तक भी जाते हुए घूर-घूर कर देखने की सभी उम्र-वर्गों की जन्मजात प्रवृति को देखते हुए यह पड़ता है कि स्रियों की बुद्धि भले घुटने में ही सही मगर कम-से-कम है तो सही....तुममे वो भी है,इसमें संदेह ही होता है कभी-कभी....स्त्रियों को महज सुन्दरता के मापदंड पर मापने वाले पुरुष ने स्त्री को बाबा-आदम जमाने से जैसे सिर्फ उपभोग की वस्तु बना कर धर रखा है और आज के समय में तो विज्ञापनों की वस्तु भी....तो दोस्तों नियम भी यही है कि आप जिस चीज़ को उसके जिस रूप में इस्तेमाल करोगे,वह उसी रूप में ढल जायेगी....समूचा पारिस्थितिक-तंत्र  इसी बुनियाद पर टिका हुआ है,कि जिसने जो काम करना है उसकी शारीरिक और मानसिक बुनावट उसी अनुसार ढल जाती है...अगर स्त्री भी उसी अनुसार ढली हुई है तो इसमें कौन सी अजूबा बात हो गयी !!    
                     दोस्तों हमने विशेषतया भारत में स्त्रियों को जो स्थान दिया हुआ है उसमें उसके सौन्दर्य के उपयोग के अलावा खुद के इस्तेमाल की कोई और गुंजाईश ही नहीं बनती...वो तो गनीमत है विगत कालों में कुछ महापुरुषों ने अपनी मानवीयता भरी दृष्टि के कारण स्त्रियों पर रहम किया और उनके बहुत सारे बंधक अधिकार उन्हें लौटाए....और कुछ हद तक उनकी खोयी हुई गरिमा उन्हें प्रदान भी की वरना मुग़ल काल और उसके आस-पास के समय से हमने स्त्रियों को दो ही तरह से पोषित किया....या तो शोषित बीवी....या फिर "रंडी"(माफ़ कीजिये मैं यह शब्द नहीं बदलना चाहूँगा.... क्योंकि हमारे बहुत बड़े सौभाग्य से स्त्रियों के लिए यह शब्द आज भी देश के बहुत बड़े हिस्से में स्त्रियों के लिए जैसे बड़े सम्मान से लिया जाता है,ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली और उसके आस-पास "भैन...चो....और भैन के.....!!)जब शब्दों का उपयोग आप जिस सम्मान के साथ अपने समाज में बड़े ही धड़ल्ले से किया करते हो....तो उन्हीं शब्दों को आपको लतियाने वाले आलेखों में देखकर ऐतराज मत करो....बल्कि शर्म करो शर्म....ताकि उस शर्म से तुम किसी को उसका वाजब सम्मान लौटा सको....!!
                 तो दोस्तों स्त्रियों के लिए हमने जिस तरह की दुनिया का निर्माण किया....सिर्फ अपनी जरूरतों और अपनी वासनापूर्ति के लिए....तो एक आर्थिक रूप से गुलाम वस्तु के क्या हो पाना संभव होता....??और जब वो सौन्दर्य की मानक बनी हुई है तो हम कहते हैं कि उसकी बुद्धि घुटने में....ये क्या बात हुई भला....!!....आपको अगर उसकी बुद्धि पर कोई शक तो उसे जो काम आप खुद कर रहे हो वो सौंप कर देख लो....!!और उसकी भी क्या जरुरत है....आप ज़रा आँखे ही खोल लो ना...आपको खुद ही दिखई दे जाएगा....को वो कहीं भी आपसे कम उत्तम प्रदर्शन नहीं कर रही,बल्कि कहीं -कहीं तो आपसे भी ज्यादा....कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि इस युग में किसी को छोटा मत समझो...ना स्त्री को ना बच्चों को...वो दिन हवा हुए जब स्त्री आपकी बपौती हुआ करती थी...अब वो एक खुला आसमान है...और उसकी अपनी एक परवाज है...और किसी मुगालते में मत रहना तुम....स्त्री की यह उड़ान अनंत भी हो सकती है....यहाँ तक कि तुम्हारी कल्पना के बाहर भी....इसीलिए तुम तो अपना काम करो जी...और इस्त्री को अपना काम करने दो.....उसकी पूरी आज़ादी के साथ......ठीक है ना.....??आगे इस बात का ध्यान रखना....!!!

Tuesday, September 7, 2010

एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!!



Monday, September 6, 2010


एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!

मेरे प्यारे सम्मानीय दोस्तों......
सचमुच मैं ऐसा मानता हूँ कि हमारे देश में कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसके लिए समस्याओं का पहाड़ बना दिया जाए....मगर हम देखते हैं कि ऐसा ही है....और ऐसा देखते वक्त अक्सर मेरी आँखें छलछलाई जाती हैं....मगर शायद मैं भी देश के कतिपय उन कुछ कायर लोगों में से एक हूँ....जो डफली तो बहुत बजाते हैं....मगर उसमें से कोई राग नहीं पैदा होता....और ना ही अपने खोखे से निकल कर किसी चौराहे पर आते हैं कि जिससे कोई आवाज़ कहीं तक भी पहुंचे मगर उफ़ किसी की कोई आवाज़ कहीं तक भी नहीं पहुँचती....अक्सर ऐसा लगता है कि हम पागल कुत्तों की तरह बेकार ही भूंक रहे हैं....क्योंकि जिनको सुनाने के लिए हम भूंके जा रहे हैं...उनके कानों में जूं तो क्या रेंगेगी...शायद उनतक हमारी आवाज़ पहुँचती ही नहीं.....मगर मैं देख रहा हूँ कि कब तक नीरो चैन की बंशी बजाता रहेगा....कब तक हम सोते रहेंगे....मगर दोस्तों इतना तो तय जानिये जिस दिन हमारी आँख खुलेगी....उस दिन इन नीरों को अपनी बंशी छोड़कर घुटनों के बल चलकर हम तक आना होगा....और देखिये कि कब तक हम इस कुंभकर्णी नींद में सोये रहते हैं....!!!!बाकी आपके द्वारा इस नाचीज़ के विचारों को सम्मान दिए जाने पर मैं अभिभूत हूँ....आप विचार का सम्मान अब तक करते हो...तो इतना तो जाहिर है कि लौ अभी बुझी नहीं है....बस उसे थोड़ा हवा दिए जाने की जरुरत है....और बस.....आग लग जानी है....इस सिलसिले में मैं अपना यह आलेख भी आप तक पहुंचा रहा हूँ....!!
                                        एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!
क्यूं सरकार बनाना चाहते हैं आप सरकार.....??
                         ....हे सरकार बनाने वालों....इधर देख रहा हूं कि बडी छ्टफटी लगी हुई है आप सबको सरकार बनाने की,क्यूं माई बाप ऐसी भी क्या हड्बडी हो गयी है अचानक आप सबको...कि आव-न-देखा ताव...वाली धून में आप सब सरकार बनाने को व्याकुल हो रहे हो,यहां तक किसी अंधे को भी आप सबों की यह व्यग्रता दिखाई पड रही है.किसी को समझ ही नहीं आ रहा है कि यकायक ऐसा क्या घट गया कि आप सब ऐसे बावले हुए जा रहे हो सरकार बनाने के लिये....लेकिन हां,कुछ-कुछ तो हम सब्को समझ आ ही रहा है कि यह सब क्यूं हो रहा है...!!
             आप सब पर शायद आप सबके द्वारा किए गये घोटालों की तलवार लटक रही है ना शायद....आप सब वही है ना जो अभी से दस साल पहले से लेकर अभी कुछ दिनों पूर्व तक एक-एक कर बने दलीय या निर्दलीय मुख्यमंत्री थे..और उस दौरान आप और आपके साथियों ने क्या-क्या गुल-गपाडा किया था क्या आप सब उस सबको भूल गये...या आप चाहते हैं कि जनता उसे भूल जाये ...!!हा....हा....हा....हा....हा....मैं भी क्या-क्या बके जा रहा हूं....जनता तो वैसे ही सब कुछ भूल जाती है....तभी तो बार-बार आप सबों से धोखा खाने के बावजूद बार-बार आप सबमें से उलट-पुलट कर फिर-फिर से उन्हीं कुछ लोगों को वापस वहीं भेज देती है,जहां से अभी-अभी कुछ दिनों पहले ही लुट-पिट कर आयी थी....पता नहीं क्यों भारत की जनता के दिल में विश्वास नाम की चीज़ जाने किस अकूत मात्रा में ठूस-ठूस कर भरी हुई है कि साला खत्म ही नहीं होने को आता....और इसी के चलते पिछली बार ही चुनाव में हारा व्यक्ति इस बार फिर से जीत कर ठसके से संसद या विधान-सभा में जा पहुंचता है...और किसी की आंखे भी नहीं फटती...!!
                         पता नहीं क्यों यह कुडमगज जनता ऐसा क्यों सोचती है कि इस बार यह आदमी सुधर गया होगा....इस बार "सार" ई बबुआ सुधरिए गया होगा....और सत्ता के खेल के पिछ्वाडे में फिर से वही कुचक्र रचा जाने लगता है...फिर से राज्य-देश और संविधान के "पिछ्वाडे" में लातें जमायी जाने लगती हैं...और किसी भी माई के लाल को कभी भी यह अहसास नहीं हो पाता कि वह भी इसी मिट्टी की संतान है....और अभी कुछ दिनों पहले वह भी यहां के स्थानीय लोगों के साथ...जनम-जनम के साथ की तरह रहा करता था....यहीं की बोली-चाली में रचा-पगा वह यहीं के लोगों के साथ यहीं के वार-त्योहार मनाता था और यहीं के लोगों के दुख-दर्द-हारी-बीमारी-पीडा-म्रत्यु आदि में शरीक हुआ करता था...ऐसा लगता है कि राजनीति को उसने अपने "लिफ़्ट" कराने भर की सीढी मात्र बनाया हुआ था...और लिफ़्ट होते ही उसका इस परिवेश से-इस वातावरण से-इस सहभागिता से नाता ही टूट गया...किसी नयी दुल्हन बनी  लड्की की तरह...जैसे एक लडकी अपनी शादी के तुरंत पश्चात अपने पति के घर के नये वातावरण- नये परिवेश के अनुसार खुद को ढाल लेती है यहां तक कि थोडे ही दिनों में अपने बाबुल के घर कभी-कभार आने के अलावा सभी नातों से विरक्त हो जाती है...आप सब भी हे सरकार बनाने वालों शायद ठीक वैसे ही लगते हो मुझे....लेकिन दुल्हन का यह जो उदाहरण दिया है मैंने,यह अधुरा है अभी क्योंकि पूरी बात तो यह है कि यह दुल्हन ज्यादातर अपने घर को बनाती है,इसकी रखवाली करती है....इसके वंश को बढाती है....वंशजों को पालती है-पोषती है,उनकी रखवाली करती है...अपना खून भी देना पडे तो देकर उस घर की रक्षा करती है...!!
                             तुम जरा सोचो ओ सरकार बनाने वालों कि यदि यह दुल्हन अगर तुम्हारी तरह हरामखोर या विभीषण हो जाए तब....!!तब क्या होगा...??अरे होगा क्या....तुम्हारी संताने नाजायज होंगी और तुम्हे पता भी नहीं होगा....!!तुम्हारे सच्चे वंश का भी तुम्हे पता ना होगा....क्या तुमने कभी सपने में भी यह सोचा या चाहा है कि तुम्हारे घर में कभी ऐसा हो...तुम्हारी दुल्हन कोई वेश्या या दुश्चचरित्र हो....!!...अगर नहीं...तो ओ सरकार बनाने वालों....तुम अपने राज्य या देश रूपी घर के लिए ऐसा क्यूं और कैसे सोचा करते हो....और दिन-रात...अपने देश और राज्य के प्रति दुश्च्रित्रिय आचरण कैसे किया करते हो...??क्या तुम्हें इस बात का कोई भान भी है कि इसका असर तुम्हारे खुद के वंशजों पर क्या पडेगा....कभी तुमने ऐसा सोचकर देखा भी है कि कल को तुम्हारे बच्चे किसी स्कूल में पढ रहे हों या सडक पर कहीं जा रहे हों और उनके पीछे अचानक यह जुमला उनके कानों में आ पडे..."देखो हरामखोर की औलाद....!!""देखो वो जा रही उस साले हरामजादे की बेटी,पता है इसकी मां....!!""वो देखो...वो देखो क्या पहलवान बना फिर रहा साला....साला मर्सिडीज बेंज दिखाता है....बाप की हराम की कमाई...!!"
                लेकिन ये जुमले तो बडे साधारण हैं...आप कल्पना करो कि कैसे-कैसे और कितने-कितने गन्दे जुमले तुम्हारे बच्चे-बच्चियों के लिए सरे-राह,सरे-आम और किस टोन में इस्तेमाल किए जा सकते हैं...!!और तुम्हारी खून और वीर्य से उत्पन्न वो सन्तानें किस कदर शर्म से पानी-पानी हो सकती हैं....दोस्तों...जरा यह भी सोचो कि ऐसे वक्त उन पर क्या गुजरेगी,सो कोल्ड जिनके लिए-जिनकी खुशी के लिए तुम सब इन गन्दे कार्यों को अंजाम दे रहे हो.....!!!   
                             तुम सब अगर अपने लिए और अपने बच्चों के लिए उज्जवल और प्यारा भविष्य चाहते हो तो अपने राज्य-अपने देश को अपने माँ-बात की तरह इज्ज़त दो सम्मान दो....इसके निवासियों का हक़ लूटने के बजाय इनकी सच्ची रहनुमाई करो...इनकी खातिर और इनके हक़ का कार्य करो....अरे पागलों पैसा तो तब भी तुम्हारे हाथ पर्याप्त आ जाएगा....तुम क्यों हाय-पैसा--हाय पैसा किए जाते हो...क्यूँ नहीं समझते कि ये पैसा तुम्हारे भविष्य का कटु अन्धकार है...और तुम्हारी संतानों के लिए घोर श्रम से डूब मरने का एक साधन...अगर तुम्हें अपने आने वाले भविष्य के लिए गदगी ही छोडनी है तब तो कुछ कहा और किया नहीं जा सकता...मगर अगर सच में तुम्हें देश में पीडी-दर-पीडी अमर होना है और वो भी अपने नाम की सुन्दरता के रूप में तो मेरे अनाम भाईयों ओ सरकार बनाने वालों,अपने शौर्य को राज्य और देश की बेहतरी की खातिर खर्च करो....और देखना अगर तुम स्वर्ग के आसमान देख पाए तो,कि तुम्हारी संतानें तुम्हारे नाम पर क्या गर्वोन्मत्त जीवन जी पा रही है.....और सर उठाकर सबसे कहे जा रही कि हाँ....देखो यह हमारे पापा ने किया था.....देखो ये काम मेरे दादाजी ने किया था....!!!

Monday, September 6, 2010

एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!!


Monday, September 6, 2010

एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!

मेरे प्यारे सम्मानीय दोस्तों......
सचमुच मैं ऐसा मानता हूँ कि हमारे देश में कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसके लिए समस्याओं का पहाड़ बना दिया जाए....मगर हम देखते हैं कि ऐसा ही है....और ऐसा देखते वक्त अक्सर मेरी आँखें छलछलाई जाती हैं....मगर शायद मैं भी देश के कतिपय उन कुछ कायर लोगों में से एक हूँ....जो डफली तो बहुत बजाते हैं....मगर उसमें से कोई राग नहीं पैदा होता....और ना ही अपने खोखे से निकल कर किसी चौराहे पर आते हैं कि जिससे कोई आवाज़ कहीं तक भी पहुंचे मगर उफ़ किसी की कोई आवाज़ कहीं तक भी नहीं पहुँचती....अक्सर ऐसा लगता है कि हम पागल कुत्तों की तरह बेकार ही भूंक रहे हैं....क्योंकि जिनको सुनाने के लिए हम भूंके जा रहे हैं...उनके कानों में जूं तो क्या रेंगेगी...शायद उनतक हमारी आवाज़ पहुँचती ही नहीं.....मगर मैं देख रहा हूँ कि कब तक नीरो चैन की बंशी बजाता रहेगा....कब तक हम सोते रहेंगे....मगर दोस्तों इतना तो तय जानिये जिस दिन हमारी आँख खुलेगी....उस दिन इन नीरों को अपनी बंशी छोड़कर घुटनों के बल चलकर हम तक आना होगा....और देखिये कि कब तक हम इस कुंभकर्णी नींद में सोये रहते हैं....!!!!बाकी आपके द्वारा इस नाचीज़ के विचारों को सम्मान दिए जाने पर मैं अभिभूत हूँ....आप विचार का सम्मान अब तक करते हो...तो इतना तो जाहिर है कि लौ अभी बुझी नहीं है....बस उसे थोड़ा हवा दिए जाने की जरुरत है....और बस.....आग लग जानी है....इस सिलसिले में मैं अपना यह आलेख भी आप तक पहुंचा रहा हूँ....!!
                                        एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!
क्यूं सरकार बनाना चाहते हैं आप सरकार.....??
                         ....हे सरकार बनाने वालों....इधर देख रहा हूं कि बडी छ्टफटी लगी हुई है आप सबको सरकार बनाने की,क्यूं माई बाप ऐसी भी क्या हड्बडी हो गयी है अचानक आप सबको...कि आव-न-देखा ताव...वाली धून में आप सब सरकार बनाने को व्याकुल हो रहे हो,यहां तक किसी अंधे को भी आप सबों की यह व्यग्रता दिखाई पड रही है.किसी को समझ ही नहीं आ रहा है कि यकायक ऐसा क्या घट गया कि आप सब ऐसे बावले हुए जा रहे हो सरकार बनाने के लिये....लेकिन हां,कुछ-कुछ तो हम सब्को समझ आ ही रहा है कि यह सब क्यूं हो रहा है...!!
             आप सब पर शायद आप सबके द्वारा किए गये घोटालों की तलवार लटक रही है ना शायद....आप सब वही है ना जो अभी से दस साल पहले से लेकर अभी कुछ दिनों पूर्व तक एक-एक कर बने दलीय या निर्दलीय मुख्यमंत्री थे..और उस दौरान आप और आपके साथियों ने क्या-क्या गुल-गपाडा किया था क्या आप सब उस सबको भूल गये...या आप चाहते हैं कि जनता उसे भूल जाये ...!!हा....हा....हा....हा....हा....मैं भी क्या-क्या बके जा रहा हूं....जनता तो वैसे ही सब कुछ भूल जाती है....तभी तो बार-बार आप सबों से धोखा खाने के बावजूद बार-बार आप सबमें से उलट-पुलट कर फिर-फिर से उन्हीं कुछ लोगों को वापस वहीं भेज देती है,जहां से अभी-अभी कुछ दिनों पहले ही लुट-पिट कर आयी थी....पता नहीं क्यों भारत की जनता के दिल में विश्वास नाम की चीज़ जाने किस अकूत मात्रा में ठूस-ठूस कर भरी हुई है कि साला खत्म ही नहीं होने को आता....और इसी के चलते पिछली बार ही चुनाव में हारा व्यक्ति इस बार फिर से जीत कर ठसके से संसद या विधान-सभा में जा पहुंचता है...और किसी की आंखे भी नहीं फटती...!!
                         पता नहीं क्यों यह कुडमगज जनता ऐसा क्यों सोचती है कि इस बार यह आदमी सुधर गया होगा....इस बार "सार" ई बबुआ सुधरिए गया होगा....और सत्ता के खेल के पिछ्वाडे में फिर से वही कुचक्र रचा जाने लगता है...फिर से राज्य-देश और संविधान के "पिछ्वाडे" में लातें जमायी जाने लगती हैं...और किसी भी माई के लाल को कभी भी यह अहसास नहीं हो पाता कि वह भी इसी मिट्टी की संतान है....और अभी कुछ दिनों पहले वह भी यहां के स्थानीय लोगों के साथ...जनम-जनम के साथ की तरह रहा करता था....यहीं की बोली-चाली में रचा-पगा वह यहीं के लोगों के साथ यहीं के वार-त्योहार मनाता था और यहीं के लोगों के दुख-दर्द-हारी-बीमारी-पीडा-म्रत्यु आदि में शरीक हुआ करता था...ऐसा लगता है कि राजनीति को उसने अपने "लिफ़्ट" कराने भर की सीढी मात्र बनाया हुआ था...और लिफ़्ट होते ही उसका इस परिवेश से-इस वातावरण से-इस सहभागिता से नाता ही टूट गया...किसी नयी दुल्हन बनी  लड्की की तरह...जैसे एक लडकी अपनी शादी के तुरंत पश्चात अपने पति के घर के नये वातावरण- नये परिवेश के अनुसार खुद को ढाल लेती है यहां तक कि थोडे ही दिनों में अपने बाबुल के घर कभी-कभार आने के अलावा सभी नातों से विरक्त हो जाती है...आप सब भी हे सरकार बनाने वालों शायद ठीक वैसे ही लगते हो मुझे....लेकिन दुल्हन का यह जो उदाहरण दिया है मैंने,यह अधुरा है अभी क्योंकि पूरी बात तो यह है कि यह दुल्हन ज्यादातर अपने घर को बनाती है,इसकी रखवाली करती है....इसके वंश को बढाती है....वंशजों को पालती है-पोषती है,उनकी रखवाली करती है...अपना खून भी देना पडे तो देकर उस घर की रक्षा करती है...!!
                             तुम जरा सोचो ओ सरकार बनाने वालों कि यदि यह दुल्हन अगर तुम्हारी तरह हरामखोर या विभीषण हो जाए तब....!!तब क्या होगा...??अरे होगा क्या....तुम्हारी संताने नाजायज होंगी और तुम्हे पता भी नहीं होगा....!!तुम्हारे सच्चे वंश का भी तुम्हे पता ना होगा....क्या तुमने कभी सपने में भी यह सोचा या चाहा है कि तुम्हारे घर में कभी ऐसा हो...तुम्हारी दुल्हन कोई वेश्या या दुश्चचरित्र हो....!!...अगर नहीं...तो ओ सरकार बनाने वालों....तुम अपने राज्य या देश रूपी घर के लिए ऐसा क्यूं और कैसे सोचा करते हो....और दिन-रात...अपने देश और राज्य के प्रति दुश्च्रित्रिय आचरण कैसे किया करते हो...??क्या तुम्हें इस बात का कोई भान भी है कि इसका असर तुम्हारे खुद के वंशजों पर क्या पडेगा....कभी तुमने ऐसा सोचकर देखा भी है कि कल को तुम्हारे बच्चे किसी स्कूल में पढ रहे हों या सडक पर कहीं जा रहे हों और उनके पीछे अचानक यह जुमला उनके कानों में आ पडे..."देखो हरामखोर की औलाद....!!""देखो वो जा रही उस साले हरामजादे की बेटी,पता है इसकी मां....!!""वो देखो...वो देखो क्या पहलवान बना फिर रहा साला....साला मर्सिडीज बेंज दिखाता है....बाप की हराम की कमाई...!!"
                लेकिन ये जुमले तो बडे साधारण हैं...आप कल्पना करो कि कैसे-कैसे और कितने-कितने गन्दे जुमले तुम्हारे बच्चे-बच्चियों के लिए सरे-राह,सरे-आम और किस टोन में इस्तेमाल किए जा सकते हैं...!!और तुम्हारी खून और वीर्य से उत्पन्न वो सन्तानें किस कदर शर्म से पानी-पानी हो सकती हैं....दोस्तों...जरा यह भी सोचो कि ऐसे वक्त उन पर क्या गुजरेगी,सो कोल्ड जिनके लिए-जिनकी खुशी के लिए तुम सब इन गन्दे कार्यों को अंजाम दे रहे हो.....!!!   
                             तुम सब अगर अपने लिए और अपने बच्चों के लिए उज्जवल और प्यारा भविष्य चाहते हो तो अपने राज्य-अपने देश को अपने माँ-बात की तरह इज्ज़त दो सम्मान दो....इसके निवासियों का हक़ लूटने के बजाय इनकी सच्ची रहनुमाई करो...इनकी खातिर और इनके हक़ का कार्य करो....अरे पागलों पैसा तो तब भी तुम्हारे हाथ पर्याप्त आ जाएगा....तुम क्यों हाय-पैसा--हाय पैसा किए जाते हो...क्यूँ नहीं समझते कि ये पैसा तुम्हारे भविष्य का कटु अन्धकार है...और तुम्हारी संतानों के लिए घोर श्रम से डूब मरने का एक साधन...अगर तुम्हें अपने आने वाले भविष्य के लिए गदगी ही छोडनी है तब तो कुछ कहा और किया नहीं जा सकता...मगर अगर सच में तुम्हें देश में पीडी-दर-पीडी अमर होना है और वो भी अपने नाम की सुन्दरता के रूप में तो मेरे अनाम भाईयों ओ सरकार बनाने वालों,अपने शौर्य को राज्य और देश की बेहतरी की खातिर खर्च करो....और देखना अगर तुम स्वर्ग के आसमान देख पाए तो,कि तुम्हारी संतानें तुम्हारे नाम पर क्या गर्वोन्मत्त जीवन जी पा रही है.....और सर उठाकर सबसे कहे जा रही कि हाँ....देखो यह हमारे पापा ने किया था.....देखो ये काम मेरे दादाजी ने किया था....!!!

Monday, August 30, 2010

main......भूत बोल रहा हूँ..........!!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
इक पागलपन चाहिये कि चैन से जी सकूं…
सब कुछ देखते हुए इस तरह जीया ही नहीं जाता…।
मैं गुमशुदा-सा हुआ जा रहा हूं,
अपनी बहुतेरी गहरी बेचैनियों के बीच…
अच्छा होने की ख्वाहिश चैन से जीने नहीं देती…
और बुरा मुझसे हुआ नहीं जा सकता…
तमाम बुरी चीज़ों के बीच फ़िर कैसे जिया सकता है ??
और सब कुछ को अपनी ही हैरान आंखों से…
देखते हुए भी अनदेखा कैसे किया सकता है…??
अगर मैं वाकई दिमागी तौर पर बेहतर हूं…
तो लगातार कैसे अ-बेहतर चीज़ें जैसे
घटिया व्यवहार,घटिया वस्तुएं,
घटिया लोग,प्रेम से रिक्त ह्रदय
एक-दूसरे से नफ़रत से भरे चेहरे
और भी इसी तरह की कई तरह की…
असामान्य और अमान्य किस्म की बातें…
किस तरह झेली जा सकती हैं आसानी से…
और जो अगर इस तरह नहीं किया जा सकता है…
तो फिर कैसे निकाला जा सकता है यह समय्…
जो मेरे आसपास से होकर धड़ल्ले से गुजर रहा है बेखट्के
मुझे समझ नहीं आता बिल्कुल कि किस तरह
आखिर किस तरह से बिना महसूस किये हुए गुजर जाने दूं…
और अगर महसूस करूं तो सामान्य कैसे रह पाउं…??
इसिलिये…हां सिर्फ़ इसिलिये पागल हो जाना चाहता हूं…
कि सब कुछ मेरे महसूस हुए बगैर
मेरे आसपास तो क्या कहीं से भी गुजर जाये…

आंखे खुली रखते हुए अन्धा हो जाना कठिन होता है बड़ा…
आंखों के साथ आप लाठी पकड़ कर नहीं चल सकते…
और हम सब आज इसी तरह चल रहे हैं बरसों से…
अगर इसी तरह का अन्धापन हमें वाजिब लगता है…
तो सच में ही अंधे हो जाने में क्या हर्ज़ है…
इसी तरह का पागल्पन हमें भाता है…तो फ़िर
सच में भी पागल हो जाने में क्या हर्ज़ है…!!
मैं पागल हो जाना चाहता हूं.…
हां…सच मैं पागल हो जाना चाहता हूं…
कि चैन से जी सकूं…
कि मरने के बाद आकर यह कह सकूं…
मैं क्या करता या कर सकता था…
मैं तो जन्मजात ही पागल था…
दुनिया में सभी इसी तरह जी रहे थे…
एक पागल क्या खा कर कुछ कर लेता…!!??  

Saturday, August 14, 2010

लेकिन राहुल,तुम करोगे आखिर क्या....???



मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
लेकिन राहुल,तुम करोगे आखिर क्या....??

प्रिय राहुल, अभी-अभी अखबार में यह खबर पढी कि तुम प्रधानमंत्री बनने के लिए देश के लोगों की सर्वोच्च पसंद हो,कोई उनतीस फ़ीसदी लोगों की पसंद और यह भी कि तुमने इस पद के अन्य दावेदारों यथा सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को पीछे छोड दिया है....किसी और दल के किसी व्यक्ति का तो अब इस पद को पाने का कोई उपाय ही नहीं,क्योंकि तुम्हारी वर्तमान लोकप्रियता के सम्मुख कोई कहीं नहीं ठहरता,तो यह प्रश्न स्वयं ही पैदा हो जाता है कि आखिर प्रधानमंत्री बनकर आखिर तुम करोगे तो करोगे क्या,तुम्हारी सोच क्या है,तुम्हारी देशना क्या है,तुममें देश के प्रति जज्बा क्या है और इसकी समस्याओं की जानकारी कितनी है,आखिर इन्हीं सवालों के उत्तर में तुम्हारे खुद के प्रधानमंत्री होने के औचित्य से अधिक देश को उसकी प्राथमिकताओं के आधार पर उसकी समस्याओं को हल में निहित है इस पद का औचित्य...!!पुन:,यह भी तय है कि इस देश की भोली-अनपढ और भावुक जनता आने वाले दिनों में तुम्हें इस "राजगद्दी" का वास्तविक हकदार समझते हुए इसे तुम्हें(प्रकारांतर से तुम्हारी मम्मी को)सौंप भी दे,जैसा कि वह विगत में करती भी आयी है तो तुम वही करने वाले हो जैसा कि विगत की सारी सरकारें करती हुई आयी हैं अथवा सचमुच तुम्हारे दिल में इस देश का कोई अदभुत भविष्य हिलोरे ले रहा है,जिसे कि साकार करने हेतु राजनीति के इस मैदान में,इस घमासान में कूद पडे हो...??यह हम नहीं जानते और सच तो यह है कि किसी के बारे में कुच नहीं जानते....और किसी को भी महज उसके भाषणों के आधार पर वोट दे डालते हैं,बिना उसकी कोई पड्ताल किये...और देश को स्वाधीनता दिलाने वाली इस कांग्रेस को तो हम खुद ही देश की बपौती मानते हैं,बिना यह जाने कि इसी कांग्रेस ने आज़ादी के बाद देश के कुछ किया भी है या इसकी जडों में सिर्फ़ मठ्ठा ही डाला है, मगर उसके बावजूद भी ओ राहुल मैं जानता हूं कि देश के अगले प्रधानमंत्री तुम्ही हो,क्योंकि मैं इस देश की जनता को जानता हूं तथा साथ ही साथ तुम्हारी कांग्रेस की सारी नौटंकियों को भी जानता और परखता हुं !!
अब देखो ना,मेरे(मतलब देश की समुची सोयी हुई जनता के) प्रश्न के उत्तर में यह भी तय है कि तुम बजाय उत्तर देने के उल्टे हमीं से प्रश्न करने लगो कि किसी युवराज या राजकुमार से ऐसे भद्दे सवाल पूछ्ने वाले हम होते कौन हैं,या फिर यह भी कि ऐसे सवाल हमने विगत में किसी से क्युं नहीं पूछे,किसी भी नेता से उसकी देशभक्ति का प्रमाण क्यूं नहीं मांगा.....कभी-कभी गलत समय पर सवाल पूछे जाने पर सवाल अनपेक्षित रूप से भडकाऊ हो जाता है,है ना राहुल...??मगर प्यारे राहुल,सवाल तो किसी भी वक्त उठाया जा सकता है,है कि नहीं...!!और उठाये गये सवाल के जवाब किसी जनप्रतिनिधि से ही क्यूं,किसी संभावित जनप्रतिनिधि से भी उतने ही अपेक्षित होते हैं,होते हैं ना राहुल..??अलबत्ता तो राहुल इस देश में सवाल ही बहुत कम पूछे गये हैं किसी से मगर उससे भी बडा दुर्भाग्य तो यह कि किसी के द्वारा किसी भी सवाल का कोई यथोचित जवाब ना दिये जाने के कारण यह देश,जिसे श्रद्दा से कभी हमने अपना वतन कह डाला है(उफ़ कह डाला था कहना था..!!),प्रश्नों के ऐसे अनसुलझे चौराहों से जा फंसा है,जिसे संभवत: कोई युवा ही सुलझा सकता है,सूझ-शक्ति-दूरदर्शिता-आत्मबल-स्वाभिमान-गौरव-जमीनी सच्चाईयों की समझ रखने वाला एक समष्टिकेंद्रित युवा ही सुलझा सकता है,और सच तो यह है कि अरबों की जनसंख्या वाले इस देश में वह युवा कोई भी हो सकता है,यहां तक कि तुम स्वयम भी....!!
तो राहुल,इस देश की समस्याएं क्या हैं,यह बार-बार तुम्हे बतलाकर तुम्हारा और मेरा वक्त जाया नहीं करना चाहता...मगर हां,तुम्हे यह बताना चाहता हूं कि उससे बडी समस्या,दरअसल सबसे बडी समस्या ही वह राजनीति है जिससे तुम्हारी ही भाषा में कहूं तो तुम "बिलोंग" करते हो, जिसमें कि तुम रचे-पगे हो,जो कि तुम्हारे आस-पास है और जिसका कि इस देश में सर्वत्र राज है,जो चौकडी तुम्हारे एन बगल में हैं और सबसे बडी और दुखदायी तो यह कि जिस "धन-बल" से यहां कि राजनीति चलती है,चल रही है...और शायद तुम्हारे होने के बावजुद भी चलेगी और जिसे कि तुम खुद भी इसी तरह हांकोगे...जो कि सुगम है,जो कि सरल है,या जो कि मलाईदार है....??क्या तुम अपने आसपास उन्ही लोगों को रखनेवाले हो,जिन्होने इस देश का खून चूस-चूस कर इतना धन और ताकत इकठ्ठा कर ली है कि कोई उनका कुछ नहीं बिगाड सके यहां तक कि कानून भी नहीं....भले अपवादस्वरूप कुछ भी होता दिखायी दे जाये...जो अब भी यही कर रहे हैं..जो आगे भी यही करेंगे.....क्योंकि इसके अलावा वे कुछ भी नहीं जानते... क्योंकि इसके अलावा उन्होने कुछ सीखा ही नहीं...क्योंकि महज अपने बीवी-बच्चों और परिवार-भर का पेट भरने के लिए उन्हें कुछ और सीखने की आवश्यकता भी नहीं थी...क्योंकि हरामखोरी दरअसल ज्यादा आसान होती है और वह हरामखोरी तो और भी ज्यादा,जिसके लिए किसी को कोई जवाब तक ना देना पड्ता हो और यहां तक कि गलती से कोई सिरफ़िरा जवाब मांग बैठे तो उसे उपर से छ: इंच छोटा कर डालने की "सलाह" तक दी जाती हो...दरअसल सत्ता और उसके साधनों की बन्दरबांट में जुटे हुए इन बन्दरों को नचाने में काबिल,इन अति महत्वपूर्ण मगर देश की नज़र में मलेच्छ लोगों को नचाने में तुम्हारी काबिलियत मुझे सन्देह है राहूल.....!!
तुम्हारे बाबुजी ने,ओ राहुल,एक बार सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि केन्द्र से चला एक रुपया आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते पन्द्रह पैसे बन जाता है....वैसे इस कथन में मुझे पन्द्रह पैसे वाले हिस्से पर भी एतराज है....मेरा सन्देह है कि दरअसल पांच पैसा ही सही जगह तक पहुंच पाता है और राहूल इस धत्तकरम के जिम्मेवार कौन लोग हैं...किस चौकडी का किया-धरा है यह सब....कहा ना,मैं बार-बार तुम्हे बता कर तुम्हारा और मेरा वक्त जाया नहीं करना चाहता....बस तुमसे इतना पूछ्ने में ही मेरा जोर है कि इस हकीकत का-इस सच्चाई का-इन तथ्यों के मद्देनज़र तुम्हारे मन में कोई उपयुक्त विचार भी है अथवा नहीं....कि बस यों ही खाली-पीली......!!राहुल सच्चाई तो यह है की आज की तारीख में अगर ऐसे लोगों के खिलाफ अगर कार्रवाई की जाए तो दल के दल खाली हो जायेंगे...कोई साफ़-सुथरा आदमी दिखाई ही नहीं देगा....ऐसे में बताओ ना राहुल कि इस राजनीति में और इस राजनीति का तुम करोगे तो करोगे आखिर क्या....??किस तरह इस गंद भरे कचड़े को साफ़ करोगे...किन लोगों को तरजीह दोगे....और किन्हें वनवास...या सब कुछ इसी तरह चलता रहना है...ज्यादा उम्मीद तो इसी बात की लगती है..जिन शेरोन के मुहं में खून लग चुका हो वो भला घास खायेंगे....और यदि ऐसा ही है तो तुम्हारे राजनीति में पदार्पण को लेकर इतना शोर-शराबा किस बात का....तुम्हारे पी.एम्.बनने-ना-बनने को लेकर इतना हंगामा क्यूँ....!!इस हंगामे को रोको यार....थोड़ा भी देश के मान का तुम्हें भान है...तो इसकी जड़ों से जुडो....इन्हें सींचो...तब तुम खुद को मुंह दिखाने के योग्य रह सकोगे....और देश का थोडा-बहुत भी अगर भला हो पाया,तो इस देश की आगामी संताने तुम्हें याद करेगी..इस देश के वतमान बुजुर्ग तुम्हें तहे-दिल से शत-शत आशीर्वाद देंगे...और हम भी तुम्हे सैल्यूट करेंगे....सच राहुल भाई....!!

Wednesday, August 4, 2010

चीन से तुलना करते हैं आप अपनी....हा...हा....हा....हा....!!!!






मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                                                 चीन से तुलना करते हैं आप अपनी....हा...हा....हा....हा....!!
                     इधर देख रहा हूं कि चीन को लेकर बहुत गहमा-गहमी है विचार-जगत में......यानी कि मीडिया जगत में और भारत तो विचार-जगत की दृष्टि से सदा ही सर्वोपरी रहा है...विचार-जगत की इसकी तमाम नदियां सदा-नीरा हैं,सनातन काल से बहती आयी हैं और शायद अनन्त-काल तक बहने वाली हैं...!!हो सकता है,भले उनका जल गंदला गया हो,भले वो एक नाले के रूप में परिणत हों गयीं हों,भले ही उनमें तमाम तरह की गंदगी समा चुकीं  हों,भले ही वो एक सडे हुए नाले की तरह हो चुकीं हों,जिसमें कीचड ही कीचड हो,पानी का कहीं नामो-निशान ही ना दिखायी दे आपको....और यह भी हो सकता है कि ये नदियां आपको धरती पर न भी दिखायी दें मगर आप अगर उसके बहने वाली जगह या उसके आस-पास कई किलोमीटर तक खोदेंगे तो वहीं कहीं बहती हुई पायी जा सकती हैं लेकिन आपको मिलेगी अवश्य....!!
                        असल में हम दार्शनिक भारतीय लोग,जो नहीं है उसका होना साबित करने में उस्ताद हैं.....इसका अर्थ यह भी हुआ कि हम जो हैं,उसे इसे इसी वक्त झूठा साबित करने में भी उस्ताद हुए....सो चीन के मामले में भी हमने यही शुतुर्मुर्गी रवैया अपना रखा है,तो इसमें आश्चर्य ही कैसा...!!!
                     चीन ही क्या,जब हम किसी भी विकसित देश की बात करते हैं तो हमें यह अवश्य ही देखना होता है कि वहां की आम जनता अपने देश के प्रति कैसी है या कितनी होनहार है,क्युंकि सच तो यह है कि नेता भी तो उसी जनता से चुन कर आते हैं....तो नेता का जो चरित्र है वो दर असल जनता का ही चरित्र है और आम जनता से मेरा तात्पर्य सिर्फ़ भूखी-नंगी निम्न-वर्गीय जनता से नहीं है.....जनता का मतलब डाक्टर,इंजीनियर,वकील ,ठेकेदार , अफ़सर,व्यापारी,व्यवसायी,कलाकार....सब ही हैं....और मेरा तात्पर्य अन्तत: इस बात से है कि हम अपने देश के लिये क्या करना चाहते हैं, शब्दों की मौखिक खाना-पूर्ति,जो कि करने में हम उस्ताद हैं ही,या कि सचमुच ही ऐसे कार्य जिससे वाकई हमारी और हमारे देश की कद्र बढे....??चीन ने जो किया है या कोई भी देश जो भी करता है,वह ना सिर्फ़ वहां के शासकों का कच्चा चिठ्ठा होता है बल्कि वहां की जनता का भी रोजनामचा होता है और मुझे यह कहते हुए बडा दुख: होता है कि नेता तो नेता,हम सब भी अपने देश के प्रति ना सिर्फ़ ईमानदार भी नहीं हैं बल्कि रहमदिल भी नहीं हैं....!!
                      हम सब ऐसे हरामी लोग हैं जो अपनी हरामीपन्ती छिपाने के लिए सदा दूसरों की हरामीपन्ती को उघाडते रहते हैं और ना सिर्फ़ इतना ही बल्कि दूसरों को नंगा करने में तुले हुए हम लोग कभी यह सोचते तक नहीं कि हमारे द्वारा नंगा किये जाने वाले व्यक्ति की बिल्कुल एक कापी हैं हम....सो भी गंदी और घटिया नकल....हमें लगता है कि हम बडे अच्छे लोग हैं,किस बिना पर यह मुझे पता नहीं...मगर भ्रष्टाचार करते और उसे बढावा देते हुए हम...बेइमानी करते और चोरों के साथ गलबहियां करते हम....कामचोरी-निठल्लापन करते और औरों को ऐसा करने को उकसावा देते हम...इस प्रकार हर तरह के एकल और सामुहिक कुकर्म-दुष्कर्म करते और दिन-रात ऐसे ही लोगों की संगति में उठते-बैठते हुए हम....मतलब हम तरह-तरह के लोग अपने-आप में एक ऐसी चांडाल-चौकडी हैं,जिन्हे अपने हित,अपने स्वार्थ और अपना-अपना और अपना के सिवा कुछ दिखायी भी नहीं देता...कुछ लोग जो ऐसे नहीं हैं वे बेशक स्तुत्य हैं...मगर समाज उन्हें किनारे किये हुए है,क्योंकि उनकी नज़र समाज को बौना साबित करती है,और समाज के ”हितों" में बाधा भी आती है,सो कुछ करने वाले भले लोगों को तो समाज ने खुद ही सेन्ट्रिंग में डाल रखा है....बाकि के भले लोग ऐसे लोगों का हश्र देख कर खुद का मुंह सिए बैठे हैं...!!
              इस प्रकार समाज अपनी मनमानी करने में व्यस्त है....और इसी समाज से निकले नेता-अफ़सर यानि के समाज के राजनैतिक-सामाजिक नुमाईंदे अपनी मनमानी करने में....यह अव्यक्त पैकेज-डील बरसों से चली जा रही है....और तब तक चलती ही रहेगी....जब तक भारत का तमाम समाज यह ठान नहीं लेता कि उसे अब अपने लिए नहीं बल्कि देश के लिए जीना है....और ऐसा कुछ करते हुए जीते जाना है...जिससे सिर्फ़ अपना खुद का ही लाभ ना हो बल्कि देश का भी हित सधे....बाकि अगर सबके लिए सारा जीवन व्यापार ही है तब तो कुछ किया भी नहीं जा सकता है...तब आने वाले दिनों में यह देश खुद-ब-खुद अपनी मौत मर जायेगा....मगर अगर इसे जिलाये रखना है तो इसे अपनी देश-भक्ति की खुराक तो देनी ही पडेगी...वो भी सुबह-शाम भर नहीं बल्कि हर वक्त....चौबीसों घंटे....!!
                      बोलने में बडा आसान लगता है कि किसी ने यह कर लिया-वह कर लिया....कर तो हम भी सकते हैं मगर अगर सिर्फ़ मूंह खोलने-भर से सब कुछ हो जाया करता तो भारत आज निस्संदेह विश्व का सिरमौर होता.... क्योंकि इसके तो ग्रंथ-पर-ग्रंथ भरे पडे हैं विचारों के,ऐसे सनातन और शाश्वत ग्रन्थ,जिनकी दुहाईयां देते हमारे बुद्धिजीवी अघाते ही नहीं...बिना यह देखे और महसूस किए हुए कि ऐसे पठन-पाठन-श्रव्यन का क्या लाभ...जब आप अपने समाज-राज्य-देश के प्रति नैतिक ही नहीं हो सके....क्योंकि बरसों-बरस भारत की इस ज्ञान-संपदा के बारे में पढता आया हूँ...और इस ज्ञान-संपदा का एक-आध अंश का पठन-पाठन-वाचन श्रवण मैंने भी किया है....मगर उसका वास्तविक परिणाम मुझे भारत के घरातल पर दिखाई ही नहीं देता....जाति-परंपरा जिसका इतना गुणगान किया जाता है...उसका वास्तविक परिणाम सदियों की हमारी गुलामी के रूप में फलीभूत दिखाई देती है...मगर इसका इससे भी विकट परिणाम करोड़ों-करोड़ लोगों द्वारा अपना आत्माभिमान-स्वाभिमान और यहाँ तक कि अपने-अपने चरित्र के "ओरिजिनल''गुणों तक को खो देने में दृष्टिगोचर दिखाई देता है...करोड़ों लोगों द्वारा अपने वास्तविक चरित्र को खो देना अंततः भारत के चरित्र का भी पराभव है,दुखद तो यह है कि यह स्थिति आज तक कायम है...और जब तक ऐसा है भारत का वास्तविक उत्थान दूर-दूर तक संभव नहीं...हाँ सपने अवश्य देखें जा सकते हैं और मीडिया के द्वारा उसे भारत पर प्रत्यारोपित भी किया जा सकता है मगर असल भारत तो आज भी भूखा-नंगा-बदहाल भारत है....और जिनकी तरक्की को लेकर हम इतने उत्फुल्ल हैं...उसके पीछे के सच को सच में ही कोई उजागर कर दे तो......शायद बहुत से बड़े-महान और वैभवशाली लोगों की कलई एकदम से खुल जायेगी....यह है तथ्य....या सच्चाई या जो कहिये..!!
                     तो प्रश्न वहीँ आकर अपने जवाब ढूँढने लगाता है...कि चरित्र के बगैर कैसे आप महाशक्ति बन सकते हो...और चरित्र के बगैर आपकी गरदन सिर्फ ऐंठ के बल पर कितने दिनों तक ऊँची रह सकती है...एक महाशक्ति बनाने जा रहे देश के लाखों-लाख किसान आत्महत्या कर सकते हैं??करोड़ों लोग बेरोजगार...और करोड़ों लोग बीस रुपये पर बेगार खट सकते हैं...??करोड़ों लोग निरक्षर...स्वास्थ्यहीन...गरीबतम...अधिकारविहीन...दो जून का भोजन तक नसीब ना हो पाने वाली स्थिति में मर-मरकर जीने वाले हो सकते हैं....अगर यह सच होने जा रहा है,जैसा कि मीडिया सोचता है...जैसा कि सब्जबाग यह विश्व को दिखता है...तो धरती पर कभी गौरवशाली रह चुके राष्ट्र(????)के लिए इससे ज्यादा भद्दा मज़ाक कोई हो भी सकता है.....???    

Friday, July 30, 2010

तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही है .....???





तो फिर क्या आम आदमी ही देश द्रोही  है .....??

                          विकिलिक्स द्वारा अमेरिकी कारर्वाईयों के भंडाफ़ोड किये जाने और अमेरिकी सरकार द्वारा इसे संघीय व्यवस्था का उल्लंघन बताये जाने पर एक प्रश्न अपने-आप ही उठ खडा होता है कि क्या सिर्फ़ सरकारें ही व्यवस्था को बनाये रखती हैं,बाकि सब तंत्र उसका उल्लघंन ही करते हैं??
                             जबसे हमने लिखित इतिहास को पढा और उसके माध्यम से सब कालों में "सरकारों"का जो आचरण जाना और समझा है उससे तो ठीक उल्टा ही प्रमाणित होता है,अब तक के लिखित इतिहास के अनुसार हमने यही देखा है कि तरह-तरह की सरकारों ने किस-किस प्रकार के "सुनियोजित-कुकर्म" किये हैं और जब विभिन्न व्यक्तियों या किन्ही सामाजिक संगठनों ने उनके विरुद्द किसी भी प्रकार की आवाज़ उठायी या आंदोलन भी किया तो किस प्रकार से इस "सो-कोल्ड" सरकारों ने उनका गला घोंटा है या कि अपनी सेना और अपने अधीन तंत्र के द्वारा किस प्रकार की हिंसा के द्वारा कुचला है और मज़ा तो यह भी है कि यह सब आज इस "सो-कोल्ड’' या कहूं कि इस तथाकथित लोकतांत्रिक कहे जाने वाले "सभ्य" युग में भी हो रहा है,अंतर सिर्फ़ इतना है कि ऐसा आचरण करने वाली लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों का ढंग और कम्युनिस्ट सरकारों का ढंग एक-दूसरे थोडा अलग है.
             इससे कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक देशों में लोक-तंत्र का अर्थ महज इतना ही होता है कि नागरिक अपनी मनमानी करें और अगर सरकार को यह नागवार गुजरे तो वह अपनी मनमानी करे...फर्क सिर्फ़ इतना है कि सरकार की मनमानियां एक भयानक अत्याचार से भी भीषण हो सकती हैं,बाद में भले वह हटा दी जाये और बाद वाली सरकार उससे भी कमीनी साबित हो.....
             अब तक यही समझा जाता रहा है कि लोगों द्वारा चुनी गयी सरकारों में लोगों के हित ज्यादा सुरक्षित होते हैं,हालांकि ज्यादातर इतिहास इस बात की न सिर्फ़ तस्दीक नहीं करता बल्कि इसे नकारता भी है.सरकार के लोग,उपर से नीचे तक चाहे वो कोई भी हों,खुद के कर्म को उचित और आम नागरिक के कर्मों को ज्यादातर गलत बताते हैं....यह गलत होना गैर-कानूनी होने से लेकर देशद्रोह होना तक भी हो सकता है,यहां तक कि इसी तर्ज़ पर आज तक तमाम लोकतांत्रिक देशों के कानून उनके खुद के ही संविधान की धज्जियां उडाते दिखायी देते हैं.....और मज़ा यह है कि जिन कानूनों के बिना पर आम लोगों को कडी-से-कडी सज़ा तक दे दी जाती है....उन्हीं कानूनों की चिथडे उनके रखवाले हर वक्त करते हुए दिखायी देते हैं, मगर चुंकि हर आदमी अपनी ही समस्याओं से भरा उन्हें निपटाने में पगलाया रहता है.....उसे गरज़ ही नहीं होती इस सबको देखने की [जब तक कि वो खुद नहीं इस सब झमेले में फ़ंस जाये ]....और सिर्फ़ और सिर्फ़ इसीलिए यह सब चलता रहता है.....लोग आंख मूंद कर अपना-अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं....और सरकारी दुनिया में बिल्ली के भाग से छींका टूटता रहता है.....उस टूटे हुए छींके से ये सरकारी लोग [बिल्लियां]मलायी मार-मार कर खाते रहते हैं....यहां तक कि कोई आम नागरिक भी अगर इस मलायी को चाटना चाहे तो उसे निस्संदेह किसी ना किसी सरकारी हाथ की मदद का ही सहारा लेना होता है....मज़ा यह कि कल को अगर यह सब उजागर भी होता है तो इसका ठीकरा हर हालत में उस गैर-सरकारी व्यक्ति या समूह के माथे पर ही फ़ूटना होता है....अगर सरकारी हाथ कुछ ज्यादा ही काला हो गया हो तो तो सरकार खुद आगे बढ्कर उसे बचाया करती है...क्युंकि सरकार में भी तो ना जाने कितने ही पक्ष होते हैं,जिन्होने इस मलायी को चाटने में अपना भी मूंह मारा होता है......
           इसका सीधा मतलब आप यह भी लगा सकते हो कि सरकार का दामन हमेशा साफ़ ही होता है...हम जैसे हरामी-कमीने-बेईमान और भ्रष्ट लोग ही सरकार का मूंह काला किये जाते हैं[सरकार के साथ मूंह काला नहीं करते....!!!]और इसीलिये सरकार का विरोध करने वाले.....सरकार अलग सोचने वाले...सरकार से बिल्कुल ही भिन्न नीति रखने वाले....और सरकार के गलत कार्यों का विरोध करने वाले ना सिर्फ़ उसकी [गोपनीय]संघीय व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले समझे जाते हैं,अपितु देशद्रोही तक भी साबित किये जा सकते हैं......प्रत्येक सरकारी व्यक्ति,चाहे वह कितना ही अदना-सा....किसी भी सामान्य समझदारी का गैर-जानकार...या कि बिल्कुल ही टुच्ची सी समझ रखने वाला भी क्यों ना हो.....उसके अधिकार.. उसकी ताकत....उसका अहंकार....उसका रुतबा...उसकी कडकता....उसका रूआब....और सबसे बढ्कर ना जाने किन अनजान जगहों से आने वाला अथाह धन उसे हमसे इतर साबित करते हैं....मगर वह देश-द्रोही कभी नहीं कहला सकता....अगर कभी कहला भी गया तो यह माना जाता है कि जरूर ही उसके खिलाफ़ कोई गहरी राजनीतिक साजिश रची गयी है...और इसके पीछे अवश्य ही विपक्षी राजनीतिक दल है....और इस प्रकार उस गद्दार व्यक्ति या समूह इस तरह के तमाम देश-द्रोही कार्यों के प्रति आंख मूंद ली जाती है....और ऐसा क्यों ना हो.....आखिर उस हमाम में सभी शरीक जो हैं.....
           सरकार के अनुदान से चलने वाला बहुतेरा मीडिया भी इस हमाम का ही वासी ही होता है....इस मलायी का चटोरा.....सो एक तरफ़ मीडिया का एक हिस्सा उस गलत व्यक्ति/समूह या सरकार के इन कारनामों को उजागर कर रहा होता है....वहीं....यह मीडिया-विशेष अपनी पूरी ताकत और जद्दोजहद के संग उन गलत कार्यों में बराबर का भागीदार बन कर सरकार का वकील बनकर उन तमाम गलत पक्षों के पक्ष में तमाम निराधार और घटिया दलीलें पेश करता है....जिन्हें हम बराबर हरामीपने के कुतर्क साबित कर सकते हैं....और समय-समय पर ऐसा करते भी हैं......मगर ऐसा कब तक चले.....और क्योंकर चले.....??सरकारों का कार्य क्या सिर्फ़ हरामीपना करना है....??सरकारें क्या किसी और लोक से उतरी हैं और किसी के भी प्रति उत्तर्दायी नहीं हैं.....??और आम आदमी का कोई और काम नहीं है क्या,जो वह सरकारों और उससे जुडे तमाम लोगों पर नज़र रखे....और अपना महत्वपूर्ण काम-धाम छोड देने की कीमत चुका कर "ऐसे लोगों” की पोल खोजता चले.....??सरकारें एयरकंडीशंड रूमों में बैठ कर तमाम उल्टे-सीधे निर्णय ले ले....फिर आम आदमी या संगठन  सडक पर आंदोलन करता चले.....??जब सब राय आम आदमी को देनी है....और सरकार को उसके हर किये हुए कर्म का अच्छा-बूरा बतलाना है.....तो फिर ऐसे निकम्मे लोगों को सरकार बनाने का न्योता ही क्यों देना है...??
                  क्या सरकार होने का मतलब यही होता है.....कि आप मनमानी करते रहो.....मनमाने निर्णय लेकर अपने ही नागरिकों की जान सांसत में डालते रहो....उनका जीवन जीना हराम करते रहो.....??अपनी ऊंची अट्टालिकायें खडी करते रहो.....सब तरह का नाजायज काम उन्हीं नियमों के छेदों की आड में करते रहो...जिसकी बिना पर तुम किसी दूसरे को जेल में झोंक देते हो....???और मीडिया-कोर्ट और सभी तरह के संगठन सरकार के पीछे भोंपू और लाठी लेकर दौडते फ़िरें....???समझ नहीं आता कि आखिर सरकार है तो आखिर है क्या....??सरकारें हम बनाते हैं हममे से कुछ लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर हमारे बीच सब किस्म की व्यवस्था कायम करने के लिये....वो भी अपने खर्च से हुए चुनाव से और अपने ही खर्च पर दिये जाने वाले उन हज़ारों नेताओं और तमाम सरकारी लोगों को वेतन देकर.....और सब सरकार बनाते ही सिर्फ़ "अपनी व्यवस्था " कायम करने लग जायें....तो उन्हें वापस कैसे बुलाया जाये.....और उनके लिये किस तरह की सज़ा तय हो...अब सिर्फ़ इसी एक बात पर विचार करना है हमारे समाज रूपी तंत्र को....अगर सरकारें अप्रासंगिक हो गयीं हैं...या हरामी हो गयी हैं....तो उसी की वजह से न सिर्फ़ यह कु-व्यवस्था फ़ैलती है....बल्कि नस्लवाद-आतंकवाद नाम नासूर भी यहीं से पनपता है....पल्लवित होता है....और सरकार के हरामीपने की तरह सब जगह फ़ैल जाय करता है.....जिस तरह अपराधियों का इलाज लाठी-डंडे-कोडे तथा अन्य तरह की सज़ायें तय हैं.....उसी तरह यही सजायें क्या इन लोगों के लिये नहीं तय की जा सकती....अगर माननीय न्यायालय कानूनों में छेद की वजह से उचित फ़ैसला कर पाने में अक्षम है....तो फिर जनता को ही क्यों नहीं इसका ईलाज करना चाहिये....!! मुझे उम्मीद है कि यह अनपढ-गरीब और सतायी हुई जनता एकदम ठीक फैसला लेगी.....हो सकता है कि सभ्य लोगों को उसका फैसला "जंगल का कानून सरीखा लगे..."मगर अगर सब तरफ़ जंगली लोग ही हों...और आम जनता के अधिकारों का बर्बरतापूर्वक हनन कर रहे हों तो आप किस तरह उनका इलाज सो कोल्ड सभ्य कानूनों द्वारा कर सकते हैं....!!
                      पानी सर से अत्यधिक उपर जा चुका है....जनता को अब फैसला लेना ही होगा....कि उसे क्या चाहिये.....एक अमानवीय और किसी भी प्रकार की उचित सोच से रहित सरकार......और उसकी नाक तले ऊंघ रहा हरामजादा प्रशासन......कि इन सबसे मुक्ति.....अगर दूसरे रास्ते की मन में है....तब तो आगे बिल्कुल रद्दोबदल कर डालिये......अपने बीच से एकदम नये लोग निकालिये....और उन्हें चेतावनी देकर ही संसद और विधान सभाओं में भेजिये.....और अभी......अभी के लिये यही कहुंगा कि इस वर्तमान को अभी-की-अभी उखाड फेंकिये.....और यह आप सब....हम सब....यानि कि आम जनता ही कर सकती है.....क्योंकि हरामियों को सज़ा देने में हमारा कानून.....और हमारा संविधान भी पस्त हो चुका है.....!!!