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Friday, January 28, 2011


ख्वाजा मेरे ख्वाजा ....दिल में समां जा ......श्याम की राधा....अली का दुलारा...ख्वाजा मेरे ख्वाजा !!.....एक धुन सी हर वक्त दिल में मचलती रहती है...हर किसी के प्रति प्यार में पगा ये दिल किसी-न-किसी को अपने पास ही नफरत के शोलों से भड़कता देखकर दिन-रात परेशान होता रहता है!! सबको इस जीवन में इंसानों के बीच ही रहना है,और वो भी अपने आस-पड़ोस के लोगों के बीच ही......मगर सबके-सब एक अनदेखे-अनजाने खुदा... भगवान...गाड...आदि के पीछे ऐसे बावले....उतावले हुए रहते हैं कि मारकाट तक पर उतारूं हैं.....!!मन्दिर- मस्जिद-गिरिजा से इस नामालूम से ईश्वर को बाहर लाकर अपने बीच के रिश्तों में खड़ा कर दिया है इसे ....!! हम सब एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के भरोसे के लिए,एक-दूसरे के प्यार के लिए जीते हैं ....!दूसरे के लिए जीना ही प्यार है...और दूसरे के लिए मर-मिटना ही उस प्यार की पराकाष्ठा !! मगर खुदा या भगवान के लिए मरना और मारना उस प्यार और इंसान की ही नहीं बल्कि खुदा या भगवान् की भी तौहीन है ...शायद ये मारने वाले नहीं जानते...मगर चंद हत्यारों के कुकर्मों के कारण आपसी विश्वास की चूले हिलने लगी हैं और उसका दुष्परिणाम आगे क्या होने को है ....क्या ये खुदा अथवा भगवान् या गोड के बन्दे कभी समझ भी पायेंगे ?? ईश्वर का सही स्थान देवालयों या फ़िर अपने ख़ुद के ही दिल में होता है....सबसे उचित स्थान तो निस्संदेह हमारा दिल ही है ...जहाँ जरा सी गर्दन झुकाई और यार की सूरत देख ली !!.... मगर दिल की और रुख ना करने वाले आदमी को चैन ही नहीं है ...सब गोया इसी बात के लिए बेचैन हैं कि जिसे वो पूजते हैं सिर्फ़-व्-सिर्फ़ वाही श्रेष्ठ है और बाकी के सब-के-सब भी उसे ही पूजें !!यही उस पागलपन की इन्तेहाँ है ,जो हमें बावलों की तरह लडाती रहती है.......!!!! और तो और जिस बुद्धिजीवी वर्ग से इसका समाधान पाने की आशा की जाती है वो ख़ुद भी इस पागलपन का अगुआ बन बैठता है !!....ब्लॉग वगैरह से लेखक लोग आपसी अनबन के कारण निकाले जा रहे हैं ...कोई एक दूसरे को समझने-समझाने के प्रयास नहीं करता !!बस यही कि हमें नहीं फुर्सत तुम्हें समझने की..चलो भागो यहाँ से ....पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं हमें समझाने !! ... यह प्रचलन ,यानि कि दूसरे को समझने कि कोई चेष्टा नहीं करना या दूसरे को अपने सामने बिल्कुल ही तुच्छ समझना हर किस्म के वर्ग में है ............यह सब हम सबमें दूरी बढ़ा रहा है.....यह सब हमें समाधान तो क्या,और भी गहरी समस्या की और ले जा रहा है .....मगर शायद हम ये तो समझते ही नहीं या फ़िर अपने अंहकार की वजह से समझना ही हैं चाहते !!...........मगर हम कहाँ जा रहे हैं ...हमारा भविष्य क्या है...यह कोई भी विवेकवान व्यक्ति बिना सोचे ही बता देगा !!.............अगर हम सचमुच ही अपने-आप को सभ्य और विवेकशील मानते है तो अभी-की-अभी इस पर निर्णय लेना होगा....तथा हर समुदाय के व्यक्ति को अपने उग्रपंथियों को काबू में करना होगा तथा कट्टरपंथियों पर भी लगाम कसनी ही होगी.....वरना ये लोग हमें जहाँ ले जायेंगे ,उसकी तस्वीर की कल्पना भी भयावह है !!...........अब सिर्फ़-व्-सिर्फ़ आदमी ही बनकर रहा जा सकता है इससे कमतर की जो बात सोचतें हैं वे दुनिया को सिर्फ़ पीछे ही ले जा सकते है मगर दुनिया पीछे जाने के लिए बनी ही नहीं है ....वह तो या तो आगे ही जायेगी ..या फ़िर ऐसे लोगों की वजह से मिट जायेगी !!!

Monday, January 24, 2011


                   कोटि-कोटि नमन तुझे है......





हे स्वर साधक......सूर सम्राट.......सरस्वती भक्त
तुझे विश्व की विनम्र श्रद्धांजलि.........................
तुझे शत-शत नमन करते हैं हम......................
तुझे ह्रदय में बिठा-रखेंगे हम...........................

Saturday, January 22, 2011



क्या याद है तुम्हें,जब हम मिले थे कभी पहली-पहली बार...
कहाँ याद होगा भला तुम्हें,तुम्हें भला इतनी फुर्सत ही कहाँ...
मैं बताती हूँ तुम्हें,तुम अवाक रह गए मुझे देखकर...
और आँखों-ही-आँखों में मेरी प्रशंसा की थी,और मैं खुश हो गयी
मैं खुश हो गयी थी इस बात पर कि,कोई इस तरह भी देखा करता है 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम भी खुश हो गए....
अपने पहले ही देखने में दिल दे चुके थे मुझे तुम...
मगर मैंने तुम्हें तौलने में कुछ वक्त लगाया....
क्यूंकि लड़कियां अक्सर इस तरह दिल नहीं दिया करती...
और फिर कुछ मुलाकातों में ही यह तय हो गया कि तुम मेरे हो 
उन दिनों तुम मेरी हर बात का कितना ख्याल रखते थे...
हर छोटी-छोटी बात पर बिछ-बिछ जाया करते थे,सर नवा कर 
और मुझे लगता कि मुझे समझने वाला इक सच्चा हमदर्द मिल गया 
मेरे अकेलेपन को बांटने वाला एक सही इंसां मिल गया है....
और मैं भी मर मिटी थी तुमपर,तुमसे भी ज्यादा...
तुम सोचते थे मैं यही चाहती हूँ...बस यही चाहती हूँ...खुश रहना 
इसी आधे सच से गुजर रहा था हमारा प्यार...इकरंग हमारा संसार...
और तब हमने शादी कर ली अपने घर वालों के विरोध के भी बाद 
और बना बैठे हम अपने सपनों का नया इक संसार 
जहां हमारे बीच प्यार था,मनुहार था,चुहल थी,तकरार थी....
और भी बहुत कुछ था,जिसमें साथ-साथ बिताते थे हम कितना ही वक्त 
बाँटते थे अपने सारे मुद्दे...गम...बातें...चुटकुले और हंसी....
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम इतने में खुश रहते थे....
बेशक मैं भी खुश थी तुम्हारी ही तरह....क्यूंकि तुम मुझमें खुश थे
और यह सिलसिला कुछ दिन तक चला...
उन दिनों मैं बहुत मादक-कमनीय और अद्भुत आकर्षक थी तुम्हारी नज़र में 
और मेरी नज़र में दुनिया के सबसे समझदार और प्यार करने वाले पति...
एक-एक कर फिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए....और मैं ढीली-ढाली तुम्हारी नज़र में 
मेरी कमनीय देह दो बच्चों को जन्म देकर वैसी नहीं रह पायी थी...
जैसा कि देखने की आदत पड़ी हुई थी तुम्हें बिलकुल टाईट या कसी हुई
मेरे स्तन लटक गए थे और योनि भी शायद कुछ ढीली...
तुम्हारी नज़र अब नयी बालाओं पर जा टिकती थी....
और मैं ताकती थी तुम्हें टुकुर-टुकुर,तुम्हारी भूख का आभास करती...
हालांकि बच्चों को प्यार तुम खूब करते थे और कर्तव्य सारे पूरे 
हंसती-खेलती गुजर रही थी इसी तरह गृहस्थी हमारी 
तुम अब भी कोशिश करते थे मुझे सदा खुश रखने की और...
सब कुछ पूरा किया करते थे अपनी पूरी तल्लीनता के साथ...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...और मैं भी खुश रहती थी तुम्हारे संग..
तुम्हारी अर्द्धांगिनी बन सदा पूर्ण परिवार का वायदा निभाती हुई....

कुछ लड़कियां भी दोस्त थी तुम्हारी,जो बेहिचक घर आती थीं...
मुझे कभी कोई शक नहीं हुआ,कि तुम वैसे नहीं हो,औरों की तरह...
मगर एक दिन जो मेरे बचपन का दोस्त आया था मुझसे मिलने हमारे घर
मैंने ताड़ लिया था तुम्हारी आँखों में कोई शक....तुम्हारा कोई डर...
और फिर उसके बाद मैनें कभी अपने पुरुष मित्र को नहीं आने दिया अपने घर 
हम हमेशा साथ चलते रहे....बच्चे हमारे बड़े होते रहे...हम सब खुश-खुश ही रहे 
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...मैं इसी तरह जी रही थी तुम्हारे आसपास 
तुम्हारे शौक मेरे सर माथे पर...और मेरी हॉबी हमारी गृहस्थी में बाधक 
मैं भी कुछ रचना चाहती,मैं भी कुछ गढ़ना चाहती थी...और 
सोचती रहती थी सारा-सारा दिन जाने तो क्या-क्या...
मगर समझ ही नहीं आता था इस तरह बंधे-बंधे करूँ मैं आखिर क्या...
पढना-लिखना-गाना-नाचना और पेंटिंग हो गए सब हवा...
बच्चे और तुम जब घर आ जाते थे तो मैं खुश ही रहती थी सदा...
तुम्हें लगा मैं यही चाहती हूँ...तुम्हारी चाहना पूरी करते हुए मेरे 
तुमने बाहर जो भी चाहा...वो लगभग हासिल ही किया..
मैं भीतर हमारा(या सिर्फ तुम्हारा)घर संभालती रही...
और मैंने जो भी सपना देखा....मन मसोस कर रह गयी...
कई बार सोचा था कि तुमको कुछ दिल की बात कहूँ...मगर 
कुछ तुम्हारी व्यस्तताओं के,कुछ किसी भय के कारण कहने से रह गयी 
और इसी तरह मेरी सारी आकांक्षाएं एक-एक करके ढह गयी...
जो सोचा,वो कभी कह ना सकी-लिख ना सकी-रच ना सकी 
बंदिशों में गृहस्थी को संवारती हुई परिवार का घर चलाती रही 
हर चीज़ में मर्ज़ी तुम्हारी होती...यहाँ तक कि रसोई भी तुम्हारी मर्ज़ी की 
और तुम थोडा छुट दे देते तो पूरी होती बच्चों की मर्ज़ी...
मैंने कभी नहीं जाना सच कि आखिर मेरी मर्ज़ी है क्या...
और कभी मर्ज़ी ने खोले पंख तो भयभीत होकर सिमट गयी मैं खुद 
गृहस्थी को कभी आंच ना आये मेरे कारण,मैंने मर्ज़ी समेट ली 
सबकी मर्ज़ी को जीते हुए अपने बच्चों की शादी भी कर दी 
अब भी थोड़ी तुम्हारी मर्ज़ी चलती है,फिर बच्चों की,फिर बच्चे के बच्चों की 
सबकी इच्छाओं में मैं सदा से अपना जीवन बून रहीं हूँ 
सबकी सब तरह की हवस को पूरा करते मैं खुद में खुद को ढूंढ रही हूँ
सबको लगता है,मैं यही चाहती हूँ...मैं नारी हूँ....पुरुष की एक सहगामिनी....और 
मैं समझ नहीं पा रही अब किसी के सम्पूर्ण साथ होकर भी अपनी सम्पूर्णता का अर्थ....!!!   

Wednesday, January 19, 2011

ऐ...तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है.....!!
तेरे भीतर भी कोई आवाज़ है....
तेरे अन्दर भी कोई साज है....
तू सभी चीज़ों का आगाज है....
तू, तू है....कोई और नहीं....एक जीवंत राज है   
तू, तू है....कोई चीज़ नहीं है....
ऐ...तू कभी तेरे को पहचान ना कभी....
कि तेरे भीतर भी कोई आदमी आग है....
बस....पता नहीं क्यों इसपर....
जन्मों-जन्मों से बिछी हुई राख है...
ऐ पागल...तू,तू है....तेरे भीतर भी कोई है..
कोई व्यक्तित्व...कोई निजता....कोई आत्मा....
तू नहीं है किसी के विलास का एक साधन मात्र 
मगर,अगर तू ऐसी ही रही...तो समझ ले कि 
ऐसा ही रहेगा यह आदम भी जैसे-का-तैसा 
एक अनंत यौनिकता...एक बर्बर भूख...
अगर तू इसकी मान ले तो बहुत अच्छा....

अगर नहीं तो ताकत के सहारे आक्रमण कर देगा 
और कहेगा कि नहीं हो सकता आज के युग में ऐसा...
नहीं यह सिर्फ एक तरफ़ा सोच नहीं है मेरी....
अपने चारों तरफ देख रहा हूँ यही एक भूख....
अनंत काल से अनन्त रूप से भूखी भूख....
मगर ऐ पागल....तेरा काम सिर्फ यही तो नहीं है ना...?
किसी के साथ कुछ रात गुजार देना....
किसी के देखने के लिए अपनी मांसलता संवार लेना...
क्या महज एक जिस्म है तू....?
जैसा कि तूने बना दिया है खुद को....!!
अगर ऐसा कुछ ही खुद को मानती है तू....
तब तो मुझे तुझसे कुछ नहीं कहना....मगर,
अगर सच में तू एक निजता है...एक व्यक्तित्व..एक आत्मा..
तो इसे पहचान ना री पगली....
निरी पशु बन कर क्या जीए जा रही है तू....
थोड़े से क्षेत्रों में कुछेक नौकरियां करके भी....

तू बनाए तो हुए है खुद को विलास का एक हूनर....
कहीं मजबूरी....तो कहीं खुद आगे बढकर....!!
जिन्दगी क्या है....कभी सोचा भी है तूने....?
तो भला क्या सिखा सकती है तू अपने बच्चों को...!!
और जिन बच्चों ने तुझसे कुछ नहीं जाना....
क्योंकि तूने खुद ने ही नहीं जाना....
तो कैसा बनाएंगे....जिन्दगी को वे....

और कैसी बनेगी बिना जाने हुए बच्चों से यह धरती....
(जैसी कि बनती जा रही है,कैरियर के लिए लड़ते 
और हवस को पूरा करने में खुद को झोंकते ये युवा...)
अरी ओ पगली....तू तो है जन्म देने वाली....
किसी को जन्म देने से पहले......
कम-से-कम अब तो खुद को पहचान....
ज़रा यह तो सोच कि कितनी विराट है तू....!!
तेरे भीतर पलता है एक अनंत व्याकुल जीवन....
इस जीवन की व्याकुलता को सही दिशा में साध....
तू है इस धरती पर एक गहन-गह्वर योगिनी....

तू मत बन पगली महज एक बावली भोगिनी....
कि तू....सच में तू है अगर....
तो आ....अपनी प्यास को पहचान....
अपने-आप से कोई नयी बात कर.....
अपने बच्चों को कोई नयी प्यास दे....
अपनी तलाश कर....अपना गुमां पहचान
देख ना री....यह धरती कुम्भलाई जा रही है....
तू अनन्त की इस भीड़ में मत खो जा री....
तेरे आने वाले बच्चे तुझसे बड़ी आस में है...


यह धरती एक नयी नस्ल की तलाश में है....!!
अब इस भीड़ में तू अपने लिए एक अनंत वीराना बून....
फिर देख दुनिया तेरे भीतर यूँ सिमट जाएगी....
जैसे कि इक भक्त में.....समा जाता है....परमात्मा....!! 

Saturday, January 15, 2011


ए बन्दर…
बोलो सरकार…
सबसे बडे चोर को कहते हैं क्या…
महाचोर सरकार…!
और चोरों के प्रमुख को…?
चोरों का सरदार…!
अगर तू कोई चीज़ चुरा लाये
तो दुनिया चोर तुझे कहेगी या मुझे…
हमदोनों को सरकार…!

लेकिन चोरी तो तूने ना की होगी बे…
लेकिन मेरे सरदार तो आप ही हो ना सरकार…!
ये नियम तो सभी जगह चलता होगा ना बन्दर…
हां हुजूर और जो इसे नहीं मानते हैं…
वो सारे चले जाते है अन्दर…!
अरे वाह,तू तो हो गया है बडा ज्ञानी बे…
सब आपकी संगत का असर है सरकार…!
तो क्या संगत का इतना ज्यादा असर हो जाता है…?
हां हुजूर,एक सडी हुई चीज़ से सब कुछ सड जाता है…!
ये बात तो आदमियों में लागू होती होगी ना बे…?
आदमी पर सबसे ज्यादा असर होता है इन सबका सरकार…!
मतलब किसी के किसी भी सामुहिक कार्य की जवाबदेही…
सिर्फ़ व सिर्फ़ उसके मुखिया की होती है सरकार…!!
मगर आदमी ये बात क्यों नहीं समझता बे बन्दर…?
सरकार,आदमी असल में सबसे बडा है लम्पट…
आदमी है सबसे बडा बेइमान और मक्कार…सरकार…!
और सब तरह के भ्रष्ट लोगों का मुखिया भी…
उसपर अंगुली उठाने पर कहता है खबरदार…!!
तो हुजूर…मेहरबान…कद्रदान…पहलवान…मेहमान…भाई-जान 
ऐसा है हमारा यह बन्दर…
जो कभी-कभी घुस जाता मेरे भी अन्दर....!!
मगर हां हुजूर,जाते-जाते एक बात अवश्य सुनते जाईए…
यह बन्दर…हम सबके है अन्दर…
जो बुराईयों को पहचानता है,सच्चाई को जानता है…!
मगर ना जाने क्यों इन सबसे वो आंखे मूंदे रहता है…!
अपनी आत्मा को बाहर फ़ेंककर किस तरह वो रहता है…?
और अपनी पूरी निर्लज्जता के साथ हंसता-खिखियाता हुआ…
कहीं अपने घर का मुखिया…कहीं किसी शहर का मेयर…
कहीं किसी राज्य का मुखिया…कहीं किसी देश का राजा…
इन बन्दर-विहीन लोगों ने देश का बजा दिया है बाजा…!!!! 

Friday, January 14, 2011

ऐ औरत !!अब तुझे रूपम पाठक ही बनना होगा....!!


ऐ  औरत !!अब तुझे रूपम पाठक ही बनना होगा.....
ऐ औरत !!अब अगर तूझे सचमुच एक औरत ही होना है 
तो अब तू किसी भी व्यभिचारी का साथ मत दे....
जैसा कि तेरी आदत है बरसों से 
घर में या बाहर भी......
कि हर जगह तू सी लेती है अपना मुहं 
घर में किसी अपने को बचाने के लिए.....
और बाहर अपनी अस्मत का खिलवाड़.....
इस सबको झेलने से बेहतर तू समझती है....
सबसे ज्यादा अच्छा अपना मुहं सी लेना....

और तेरे मुहं सी लेने की कीमत क्या है,तू जानती है...??
 तेरी ही कोख से जने हुए ये बच्चे...बूढ़े...और जवान....
सब-के-सब तुझ पर चढ़ बैठना चाहते हैं....
ये उद्दंड तो इतने हो गए हैं तेरी चुप्पी से....
कि इन्हें कुछ नज़र ही नहीं तुझमें,तेरी कोख के सिवा 
......तो अब तू सोच ना....कि तेरे पास अब चारा ही क्या है...
......आ मैं बताता हूँ तुझे....लेकिन मैं क्या बताऊँ 
......अब तो सबको रूपम ने बता ही दिया है.......
.......उठा ले हाथों में कटार....या फिर कुछ और....
.......बेशक ये रास्ता मुश्किल से बहुत है भरा......
.......मगर कुछ ही दिन करना होगा यह तुझे...
.......उसके बाद देख लेना.............
......कि तेरी तरफ उठने वाला हर नापाक कदम 

......तेरा क्रोध भरा चेहरा देखकर....
.......वापस लौट जाएगा....अगले ही दम....!!
......ऐ औरत तू ज़रा सी देर के लिए बना ले....
.....खुद को दुर्गा का कोई भी अवतार.....
.....जो आज बनी है रूपम सी कोई....
......अपने बच्चों को बता अपने रौद्र रूप के मायने 
......और आदमी रुपी जानवर की वीभत्सता का क्रूर सच...
......तेरे भीतर की दुर्गा अगर तुझमें ज़रा सी भी अवतरित हो जाए...
......तो हर वहशी इंसान को अपनी औकात पता चल जाए...!! 

Wednesday, January 5, 2011


मन मचलता है....
मगर कुछ कह नहीं पाता....
पता नहीं किस दिशा से 
इसे कोई अज्ञात बुलाता....
कौन कानों में कुछ सुरसुरा देता है...
कौन देह को छुईमुई बना देता....
कौन आँखों को रौशन-सा 
करके भी इक धुंध भर देता है 
कौन ह्रदय को महका जाता....
मन मचलता है....
मगर कुछ कह नहीं पाता 
कहाँ से आ जाते हैं  
आँखों में अनंत सपने.....  
कौन कल्पनाओं को बना कर  
मुझमें उड़ेल देता....
कौन नस-नस में जीने की 
ताकत भर देता है....
और भरी उदासी में यकायक 
उमंग को पग देता है.....
ये कौन है जो होकर नहीं है और 
नहीं होकर होने की तरह 
ये कौन है जो हममें  रहकर  भी
अज्ञात की तरह जीता  है....
ये कौन अज्ञात है जो 
हरदम मुझे बुलाता रहता है
मेरे भीतर एक झरने की भांति
अनवरत छलछलाता रहता है.....!!!    
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