साहित्यकार विष्णु प्रभाकर को श्रद्धांजलि
रवींद्र व्यास
इस उत्तर आधुनिक समय में जब हर कोई जल्द से जल्द प्रसिद्ध और लोकप्रिय होना चाहता है, प्रचार-प्रसार की दुनिया से हर कोई प्रभावित होकर दूधिया रोशनी में आने के लिए लालायित रहता हो तब किसी भी लेखक का लगातार लिखते रहना और चुपचाप लिखते रहना एक भरोसा पैदा करता है कि अभी भी कुछ ऐसे साहित्यकार हैं जो अपने समय को समझते-बूझते उसे रच रहे हैं। बिना इसकी चिंता किए कि उन्हें कितना पढ़ा जाएगा और उन्हें कितना समझा जाएगा। और यह भी कि उन्हें कितनी ख्याति मिलेगी। लगता है विष्णु प्रभाकर इस परंपरा के आखिरी साहित्यकार थे जो किसी भी तरह की चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना चुपचाप लिखते रहे। उनके निधन से उस परंपरा का आखिरी स्तंभ भी ढह गया है। उन्हें जो ख्याति आवारा मसीहा से मिली, वैसी उनकी किसी दूसरी कृति से उन्हें नहीं मिली। हालाँकि उन्होंने अर्धनारीश्वर जैसी कृति भी लिखी जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। आवारा मसीहा बांग्ला के ख्यात उपन्यासकार शरत बाबू की जीवनी है। अंग्रेजी में जीवनी लिखने की एक लंबी परंपरा है और वहाँ आपको अभिनेता से लेकर निर्देशक, संगीतकार से लेकर नर्तक और लेखक से लेकर गायक तक की कई बेहतरीन जीवनियाँ मिल जाएँगी लेकिन हिंदी में जीवनी लेखन परिदृश्य लगभग उजाड़-सा है। इसमे आवारा मसीहा एक बेजोड़ जीवनी है। इस उपन्यास को हिंदी में जो प्रेम मिला वैसा बहुत ही कम कृतियों को नसीब होता है। इससे यह निष्कर्ष निकालने में आसानी हो सकती है कि विष्णु प्रभाकर को पाठकों का गहरा प्रेम हासिल हुआ। और यही कारण है कि हिंदी में इसे जो लोकप्रियता हासिल हुई उसी कारण इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और ऐसा माना जाता है कि इन भाषाओं में भी आवारा मसीहा को खुले दिल से सराहा गया। गाँधीवादी विचारों से प्रभावित रहे विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखी गई यह जीवनी एक तरफ जहाँ दिग्गज उपन्यासकार शरत बाबू के जीवन और समय को समझने की एक संवेदनशील और गहरी नजर देती है वहीं यह भी दर्शाती है कि एक लेखक दूसरे लेखक को कितनी सहानुभूति और सहृदयता से देखने-समझने की कोशिश करता है। आवारा मसीहा न केवल एक लेखक के बनने, अपने समय में रहते हुए उससे प्रतिकृत होने और रचने के लिए एक अनिवार्य यातना को एक सहज भाषा में अभिव्यक्त करती है बल्कि इसे पढ़ते हुए हम यह सहज ही अंदाज भी लगा सकते हैं कि इसके लिए प्रभाकरजी ने कितना श्रमसाध्य शोध और अध्ययन किया। उन्होंने लगभग आवारा मसीहा लिखने से पहले लगभग 15-16 सालों तक अध्ययन किया।उन लोगों से मिले जो शरत बाबू के संपर्क में थे, उनके तमाम पत्रों, साहित्य, करतनों का अध्ययन किया। वे उन जगहों पर गए जहाँ शरत बाबू रहते थे और जहाँ उन्होंने अपने जीवन का महत्वपूर्ण हि्स्सा बिताया। हम शरत बाबू को एक रचनाकार के रूप श्रीकांत, चरित्रहीन और देवदास जैसे उपन्यासों के कारण जानते हैं। और इसलिए भी जानते हैं कि उनके उपन्यासों पर श्रीकांत पर सीरियल और देवदास पर फिल्में बन चुकी हैं। हाल ही फिल्मकार शक्ति सामंत ने उनके एक उपन्यास से प्रेरित होकर ही अमर प्रेम जैसी फिल्म बनाई थी लेकिन आवारा मसीहा के जरिये एक व्यक्ति के रूप में शरत बाबू से परिचित होते हैं। यह किताब इतने धैर्य, इतने निर्मल मन और साफ दृष्टि से रची गई है कि हम शरत बाबू की बाहरी दुनिया से ज्यादा उनकी भीतरी दुनिया से ज्यादा आत्मीय तरीके से परिचित हो पाते हैं। तमाम खूबियों के साथ-साथ शरत बाबू कमजोरियों लिए हमारे सामने आते हैं। उनका अभावग्रस्त जीवन, बीच में पढ़ाई छोड़ देना, प्रेम और शराब की लत से लगातार सेहत गिरना, उनके जीवन के तमाम महत्वपूर्ण मोड़ों से गुजरते हम उन्हें महसूस कर सकते हैं। आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर की एक कृति नहीं एक दूसरे लेखक के अंतरमन में गहरे उतरकर रचने की चुनौती है। यह उनके अँधेरे-उजाले में सिर झुकाकर उन्हें समझने की कोशिश है और एक लेखक के प्रति दूसरे लेखक का अगाध प्रेम भी है। मुझे नहीं लगता कि किसी लेखक की ऐसी जीवनी लिखने का धैर्य अब किसी लेखक में होगा। हालाँकि आवारा मसीहा मुझे जीवनी और औपन्यासिक कृति के बीच की कोई खूबसूरत कृति लगती है क्योंकि इसमें तथ्यों के साथ विष्णुजी ने अपनी कल्पना और कहानी कहने की कला का सहारा भी लिया है। शायद यही कारण है कि यह एक अमूल्य कृति का दर्जा पा सकी है।
Sunday, April 12, 2009
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