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Sunday, July 12, 2009

क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके?

क्या 10वीं में बोर्ड परीक्षा इसलिए खत्म की जानी चाहिए कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में 10वीं की बोर्ड परीक्षा नहीं होती? हमारा समाज इन समाजों से अलग है, हमारा इतिहास बोध ज्यादा गहरा है, हमारे मूल्य ज्यादा नीचे तक जमे हुए हैं, ऐसे में मुझे लगता है कि शिक्षा को लेकर हमें अपने समाज, संस्कृति, इतिहास को देखकर कोई फैसला लेना चाहिए। हमें समझना पड़ेगा कि खामी कहां है, हमें समझना पड़ेगा कि गुणवत्ता क्यों गायब होती जा रही है? शुरुआत प्रायमरी से करनी पड़ेगी। जब तक प्रायमरी में सुधार नहीं होता तब तक न तो सेकेंडरी की गुणवत्ता सुधरने वाली है और न यूनिवर्सिटीज की। और जब तक ये सब नहीं सुधरता, हमारा विकास खोखला ही रहेगा और बाहर से आने वाला कोई कमजोर झोंका भी हमारे विकास की इमारत को हिला देगा। मेरी प्रायमरी शिक्षा भारत वर्ष के एक छोटे से गांव में हुई। तब करीब 1500 की आबादी वाले हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर समेत तीन मास्टर होते थे और बच्चे थे करीब 200। आसपास के चार गांव के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे। हेडमास्टर सिर्फ कक्षा पांच के बच्चों को पढ़ाते थे और बाकी दोनों मास्टर साहब दो-दो कक्षाओं को पढ़ाते थे। इन मास्टर साहबों की सामाजिक स्थिति भी बताते चलते हैं – हेडमास्टर ब्राह्मण थे, एक मास्टर साहब कायस्थ और एक मास्टर साहब पिछड़े वर्ग से। गांव में 50 फीसदी से ज्यादा पिछड़ा वर्ग, करीब 15 फीसदी मुसलिम, 10 फीसदी दलित और बाकी ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य अगड़ी जातियां। आज भी मैं याद करता हूं कि बच्चों की पढ़ाई को लेकर उन मास्टर साहब लोगों का समर्पण। हेडमास्टर (यानी पंडितजी) सुबह-सुबह पूरे गांव का चक्कर लगाकर बच्चों को स्कूल की तरफ ठेलते थे। तीनों मास्टर साहब नजर रखते थे कि गांव में किसका बच्चा पांच साल का हो गया है। हर नया सेशन शुरू होने पर उनकी कोशिश होती थी कि पांच साल पूरा करने वाले बच्चों का नाम स्कूल में लिख जाए। लोगों को अपने बच्चों की जन्मतिथि तो याद नहीं होती थी, लिहाजा पंडित जी अनुमान से उनकी जन्मतिथि दर्ज कर लेते थे। अनुमान लगाने का तरीका भी बहुत रोचक था- किसी ने कहा कि पंडित जी पिछली बार जब बाढ़ आई थी तब हमारा लड़का या लड़की अपनी अम्मा के गोद में थी, पिछली बार जब आग लगी थी तब यह पेट में था, जब मझिलऊ की शादी हुई थी तब यह अपने पैरों पर चलने लगा था आदि-आदि। आज मैं सोचता हूं कि पूरी दो पीढ़ियों के उन लोगों की जन्मतिथि तो पंडितजी की तय की हुई है जो स्कूल गए। आज वही उनकी आधिकारिक जन्मतिथि है। ऐसा कमिटमेंट क्या आज सरकारी स्कूलों के शिक्षकों में है? शिक्षा व्यवस्था में सार्थक बदलाव के लिए हमें पहले जवाब तलाशना होगा कि क्यों खत्म हो गया यह कमिटमेंट?मैं अपना ही किस्सा आगे बढ़ाता हूं, शायद हमें जवाब तलाशने में मदद मिले। वे 70 के दशक के अंतिम वर्ष थे। इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी और जनता सरकार थी। इमरजेंसी के दौरान का जो मुझे याद है, उसके मुताबिक नसबंदी और दलित (हरिजन) दो ही बातें सुनाई देती थीं। हमारे मास्टर साहबों को भी केस (नसबंदी) लक्ष्य मिले हुए थे। ऊपर से उन्हें डिप्टी साहब (ब्लाक शिक्षा अधिकारी) का लक्ष्य भी पूरा कराना था। वे लोग बात किया करते थे कि केस नहीं पूरे हुए तो नौकरी पर बन आएगी। वे बेचारे इसी में दुबले होते जा रहे थे कि इमरजेंसी हट गई, जनता सरकार आ गई। लोग अपने को इंपावर्ड महसूस करने लगे। तभी मेरे स्कूल में एक वाकया हुआ। कक्षा पांच के बच्चों में से कुछ कई दिनों से सुलेख लिखकर नहीं ला रहे थे। पंडितजी को गुस्सा आ गया। पंडितजी की यूएसपी ही उनका कड़क मिजाज था सो उन्होंने उन दोनों बच्चों की जमकर पिटाई की। दूसरे दिन सुबह उनमें से एक के पिता पंडितजी के पास आए और कहा कि बच्चे को इतना नहीं मारना चाहिए था। पंडितजी ने चुपचाप सुन लिया। बाद में कक्षा पांच के सभी बच्चों के पिता से जाकर पूछा कि क्या वे चाहते हैं कि उनके बच्चे की पिटाई न की जाए। जिन लोगों ने हां कहा, उनके बच्चे अलग से पढ़ाए जाने लगे और जिन्होंने कहा कि पंडितजी आपका बच्चा है, आपको पढ़ाना है, जैसे चाहो वैसे पढ़ाओ, उनके बच्चों को अलग से पढ़ाया जाने लगा। बाद में जब हम बड़े स्कूल गए तब पता चला कि यहां जो सेक्शन (वर्ग) होते हैं, वे तो पंडितजी ने गांव के स्कूल में ही शुरू कर दिए थे। फिर धीरे-धीरे न पंडितजी कड़क रहे और न दूसरे मास्टर साहब। पंडितजी की कपड़े की दुकान थी जिसे वे शाम को ही खोलते थे, अब दिन में भी खुलने लगी। मास्टर साहबों को भी छूट मिल गई। एक मास्टर साहब ने पढ़ाने के साथ डाक्टरी भी करने लगे और मास्टर साहब की जगह डागदर साहब के रूप में ख्याति प्राप्त की। दूसरे ने अपनी खेती खुद करनी (पहले बटाई पर देनी पड़ती थी क्योंकि पंडितजी स्कूल से हिलने नहीं देते थे अब पंडितजी ने भी अपनी खेती खुद शुरू कर दी थी) शुरू कर दी और अगले 10 साल में गांव के बड़े काश्तकार बनकर उभरे। धीरे-धीरे स्कूल नाममात्र का रह गया। बाद में तो स्कूल में पास कराई के भी पैसे लगने लगे। पिछले दिनों पंडितजी का देहावसान हो गया। एक साल पहले मैं जब गांव गया तो देखा, हर घर के बाहर मोटरसाइकिल खड़ी थी, 25-30 ट्रैक्टर थे, पाच-छह मारुति थीं, अधिकतर मकान पक्के हो गए थे, सभी बच्चे चप्पल पहने हुए दिखाई दिए। स्कूल भी बदल गया था, मास्टर साहब अब मास्टरों में तब्दील हो गए थे, दो कमरे और बन गए थे जिसमें से एक में हेडमास्टर साहब रहते हैं और दूसरे में उनकी ओपीडी चलती है। 25-30 साल पहले रोपे गए आम-अमरूद के पौधे अब बड़ी सी बाग बन गए थे। हमने पूछा कि इसमें खूब आम लगते होंगे, लोगों ने बताया लेकिन इससे मिलने वाला पैसा अब स्कूल में नहीं लगता बल्कि मास्टरों, पंचायत और ऊपर के अधिकारियों में बंट जाता है। गांव ही नहीं शहरों में भी यही हुआ। सरकारी स्कूल अपने बड़े-बड़े परिसरों में अपनी पुरानी गुणवत्ता की कब्रगाह बनकर रह गए हैं।आखिर ऐसा हुआ क्यों? क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके? इनमें कहां अंतरविरोध है? कमाई साधन क्यों और कैसे बनती गई शिक्षा? मैं समझता हूं शिक्षा व्यवस्था में कोई भी सुधार, बदलाव तभी कारगर होगा जब वह ऐसे सवालों के ईमानदार जवाबों की नींव पर खड़ा होगा। निश्चित तौर पर आपके पास भी ऐसे अनुभव और किस्से होंगे जो जमीनी हकीकत को समझने में मददगार हो सकते हैं। तो आइए और शेयर करिए अपने अनुभव-

1 comment:

  1. भाईसाहब इसमें क्रेडिट लाइन तो दे देते।

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