पिघलता जा रहा हूँ, ये क्या हो रहा है मुझे ?
ओ सूरज,मैं आँख-भर नहीं देख पाता तुझे !!
मैंने किसी के दुःख में रोना छोड़ दिया अब
कितने ही गम और परेशानी हैं खुद के मुझे !!
दिन से रात तलक खटता रहता हूँ बिन थके
उम्र गुजरने से पहले कहाँ है आराम मुझे !!
ना जाने किन चीज़ों के पीछे भाग रहा हूँ
उफ़ ना जाने ये क्या होता जा रहा है मुझे !!
किसी जगह टिक कर रोने को दिल है आज
ऐसा क्यूँ हो जाता है अक्सर''गाफिल''मुझे !!..
८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८
८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८
किसी शै समझ नहीं पता की क्या करूँ
किसी के कंधे से जा लगूँ और रो पडूँ !!
जिन्दगी अगर इसी को कहते हैं तो फिर
इसी वक्त मर जाऊं,अपनी लाश दफना दूँ !!
कोशिशें,नाकामियाँ,गुस्सा और नफरत,उफ़
घुट-घुट कर रोता रहूँ और बस रोता रहूँ !!
ऊपरवाले का होगा कई सदियों का इक बरस
मैं क्यूँ पल-पल,कई-कई सदियाँ जीता रहूँ !!
इतना हूँ बुरा तो वक्त मार ही दे ना मुझे
उम्र की किश्ती के साथ किनारे जा लगूँ !!
बहुत तड़पती हैं ये धडकनें दिल के भीतर मेरे
दिल को निकाल कर फेंक दूं बेदिल ही जिया करूँ !!
मैं अपने-आप से भाग भी जाऊं तो जाऊं कहाँ
इससे तो अच्छा है कि खुद में ही गर्क हो रहूँ !!
कई दिनों से सोचा था खुद के बारे में कुछ लिखूं
अपने हर इक हर्फ़ में मैं कुत्ते की मौत मरता रहूँ !!
uuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuu
uuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuu
मेरा परिचय :
नाम : राजीव कुमार थेपड़ा [वर्मा]
पिता : स्व किशन वर्मा
जन्म-तिथि :24 सितम्बर 1970
शिक्षा :बी ए आनर्स [दर्शन-शास्त्र]
रूचि :रंगमंच,गायन,लेखन तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय [था]
विशेष :1997 में इन्डियन फ़िल्म एन्ड थियेटर अकादिमी [दिल्ली] के टापर
अभिनय-गायन-लेखन-निर्देशन में सैंकड़ों मंचन
पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा प्रकाशित
चंडीगड तथा इलाहाबाद से सुगम तथा शास्त्रीय संगीत में संगीत-प्रभाकर
इन सभी क्षेत्रों में कई पुरस्कार
आकाशवाणी रांची के कलाकार
मगर फ़िलहाल पैकिंग मैटेरियल के व्यापार में सक्रिय [सभी शौक जो ऊपर उल्लिखित हैं,उनसे किनारा !!]
कार्यालय : प्राची सेल्स
नोर्थ मार्केट रोड
अपर बाजार,रांची
सम्पर्क : 09934305251/093060035/0651-3042630..
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Saturday, April 24, 2010
Sunday, April 4, 2010
koi sheershak nahin...........
पता नहीं अच्छाई का रास्ता इत्ता लंबा क्यूँ होता है...!!
पता नहीं अच्छाई को इतना इम्तहान क्यूँ देना पड़ता है !!
पता नहीं सच के रस्ते पर हम रोज क्यूँ हार जाया करते हैं !!
पता नहीं कि बेईमानी इतना इठला कर कैसे चला करती है !!
पता नहीं अच्छाई की पीठ हमेशा झूकी क्यूँ रहा करती है !!
उलटा कान पकड़ने वाले इस जमाने में माहिर क्यूँ हैं !!
बात-बात में ताकत की बात क्यूँ चला करती है !!
तरीके की बातों पर मुहं क्यूँ बिचकाए जाते हैं !!
सभी जमानों में ऐसा ही देखा गया है,
कौए को तो खाने को मोती मिला करता है,
और हंस की बात तो छोड़ ही दें ना....!!
हर बार हमने देखा है कि सच की जीत ही होती है,
मगर तब तक क्या बहुत देर नहीं हो चुकी होती ??
जिन्दगी भर अच्छाई अपनी जगह से निर्वासित रहे,
और अंत के कुछ दिनों के लिए ताज मिल भी जाए तो क्या है !!
फिर सच को इस तरह से जीतने की खाज ही क्या है !!
क्या हम अभिशप्त हैं ता-जिन्दगी राक्षसों का नर्तन देखने के लिए ??
चिता पर कोई देवता तब आ भी जाए तो क्या है !!
दुनिया अगर स्वर्ग होने के लिए ही है,
तो नरक का ऐसा भयंकर कोढ़ बहुत जरूरी है क्या ??
कोई कुंदन होने के लिए जीवन भयंकर भर आग में जलता रहा करे !!
फटी-फटी आँखों से वह यह सब नारकीय-सा देखता रहा करे !!
शान्ति के लिए युद्ध, ऐसा भी क्यूँ लाजिमी होता है ??
शान्ति पाने के आदमी अपना सब-कुछ क्यूँ खो देता है ??
तब भी शान्ति मिल ही जाए यह कोई ऐसा जरूरी भी नहीं !!
शान्ति के ऐसे यज्ञ के आयोजन का प्रयोजन भी क्या है !!
हम किस बात के लिए पैदा हुआ करते हैं ??
धरती को अपने शरीर का मल और इंसान को,
अपने विचारों की हिंसा का मल प्रदान करने के लिए ??
अगर ऐसा ही है तो हमारा होना ऐसा भी क्या जरूरी है ??
और अगर हम ही ऐसे हैं तो -
खुदा जैसी किसी को हमारे बीच लाना जरूरी है क्या ??
http://baatpuraanihai.blogspot.com/
पता नहीं अच्छाई को इतना इम्तहान क्यूँ देना पड़ता है !!
पता नहीं सच के रस्ते पर हम रोज क्यूँ हार जाया करते हैं !!
पता नहीं कि बेईमानी इतना इठला कर कैसे चला करती है !!
पता नहीं अच्छाई की पीठ हमेशा झूकी क्यूँ रहा करती है !!
उलटा कान पकड़ने वाले इस जमाने में माहिर क्यूँ हैं !!
बात-बात में ताकत की बात क्यूँ चला करती है !!
तरीके की बातों पर मुहं क्यूँ बिचकाए जाते हैं !!
सभी जमानों में ऐसा ही देखा गया है,
कौए को तो खाने को मोती मिला करता है,
और हंस की बात तो छोड़ ही दें ना....!!
हर बार हमने देखा है कि सच की जीत ही होती है,
मगर तब तक क्या बहुत देर नहीं हो चुकी होती ??
जिन्दगी भर अच्छाई अपनी जगह से निर्वासित रहे,
और अंत के कुछ दिनों के लिए ताज मिल भी जाए तो क्या है !!
फिर सच को इस तरह से जीतने की खाज ही क्या है !!
क्या हम अभिशप्त हैं ता-जिन्दगी राक्षसों का नर्तन देखने के लिए ??
चिता पर कोई देवता तब आ भी जाए तो क्या है !!
दुनिया अगर स्वर्ग होने के लिए ही है,
तो नरक का ऐसा भयंकर कोढ़ बहुत जरूरी है क्या ??
कोई कुंदन होने के लिए जीवन भयंकर भर आग में जलता रहा करे !!
फटी-फटी आँखों से वह यह सब नारकीय-सा देखता रहा करे !!
शान्ति के लिए युद्ध, ऐसा भी क्यूँ लाजिमी होता है ??
शान्ति पाने के आदमी अपना सब-कुछ क्यूँ खो देता है ??
तब भी शान्ति मिल ही जाए यह कोई ऐसा जरूरी भी नहीं !!
शान्ति के ऐसे यज्ञ के आयोजन का प्रयोजन भी क्या है !!
हम किस बात के लिए पैदा हुआ करते हैं ??
धरती को अपने शरीर का मल और इंसान को,
अपने विचारों की हिंसा का मल प्रदान करने के लिए ??
अगर ऐसा ही है तो हमारा होना ऐसा भी क्या जरूरी है ??
और अगर हम ही ऐसे हैं तो -
खुदा जैसी किसी को हमारे बीच लाना जरूरी है क्या ??
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